Saturday, March 09, 2013

शिवतांडवस्तोत्र

रामायणाचा खलनायक हीच रावणाची मुख्य ओळख आहे. काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद आणि मत्सर या सहा अंतर्गत दुष्मनांच्या, म्हणजे षड्रिपूंच्या प्रभावाखाली येऊन त्याने काही दुष्टपणाची कृत्ये केली. ही त्याची एक बाजू झाली. पण तो पराक्रमी आणि कर्तबगार राजा होता. त्याच्या अधिपत्याखाली त्याच्या राज्यात सुवर्णयुग नांदत होते. रावणाच्या लंकेतली घरे सोन्याच्या विटांनी बांधली होती, त्याला दहा तोंडे होती, तो आकाशमार्गे भ्रमण करत होता वगैरे समजुतींमध्ये अतीशयोक्ती असली किंवा हा सगळा वाङ्मयामधील अलंकारांचा भाग असला तरी त्याने लिहिलेल्या शिवतांडवस्तोत्रामधून त्याची विद्वत्ता, बुध्दीमत्ता आणि शंकराचे चरणी असलेला त्याचा भक्तीभाव व्यक्त होतो. रावणाने लिहिलेले असे एक स्तोत्र आज उपलब्ध आहे हे मी पहिल्यांदा ऐकले तेंव्हा मला आश्चर्यही वाटले आणि त्याबद्दल कुतूहल निर्माण झाले. पण ते मिळवून वाचायचा प्रयत्न केला तेंव्हा त्यात एकापाठोपाठ येणा-या जोडाक्षरांचा संधीविग्रह करून त्यातून सुसंगत असा अर्थ काढणे मला शक्यच नव्हते. त्याचा सोप्या हिंदी भाषेत अर्थ एका ठिकाणी मिळाला. माझे एक स्नेही श्री.नरेंद्र गोळे यांनी तर मूळ स्तोत्र ज्या वृत्तात आहे त्याच चालीवर मराठी भाषेत त्याचा भावानुवाद केला आहे. निरनिराळ्या गायकांनी सुस्वरात गायिलेले हे स्तोत्र आता यू ट्यूबवर उपलब्ध आहे. अर्थ कळला नाही तरी त्यातील शब्दांचे माधुर्य आणि तालबध्दता मनाला मोहक वाटते. काव्यरचनेसाठी लागणारी प्रतिभा रावणाकडे होती, संस्कृत भाषेवर त्याचे प्रभुत्व होते आणि त्याला संगीतकलाही अवगत होती या तीन्ही गोष्टी त्यातून दिसतात.

आज शिवरात्रीच्या दिवशी हे मूळ स्तोत्र, त्याचा छंदबध्द मराठी अनुवाद आणि हिंदी भाषेत अर्थ मी या ठिकाणी सादर करीत आहे.

काही महत्वाचे दुवेही खाली दिले आहेत.

 श्री.नरेंद्र गोळे यांचा ब्लॉगः http://anuvad-ranjan.blogspot.in/

पं.जसराज यांनी गायिलेले शिवतांडवस्तोत्र
http://mp3ruler.com/mp3/shiv_tandav_stotram_pandit_jasraj.html

इतर गायकांच्या आवाजात
http://www.youtube.com/watch?v=PoSiBnnvMw0
http://www.youtube.com/watch?v=yZa0gble8EI
http://www.youtube.com/watch?v=9E_HG0fAYEM
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॥ रावण विरचित शिव तांडव स्तोत्र ॥   
      मूळ संस्कृत श्लोक                          मराठी अनुवाद

जटाटवीगलज्जल प्रवाहपावितस्थले          जटांमधून धावत्या जलांनि धूत-कंठ जो
गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌    धरीत सर्पमालिका, गळ्यात हार शोभतो
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं           डुमूड्डुमू करीत या, निनाद गाजवा शिवा
चकारचंडतांडवं तनोतुनः शिवः शिवम्‌॥१॥     करीत तांडव प्रचंड, शंकरा शुभं करा॥१॥
   
जटा कटाहसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी        जटांतुनी गतीस्थ, गुंतल्या झर्‍यांपरी अहा
विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि        तरंग ज्याचिया शिरी विराजती, शिवा पहा
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके          ललाट ज्योतदाह ज्या शिवाचिया शिरी वसे
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम॥२॥     किशोर चंद्रशेखरा-प्रती रुचीहि वाढु दे॥२॥
   
धराधरेंद्रनंदिनी विलास बंधुबंधुर-          नगाधिराज-कन्यका-कटाक्ष मोदिता शिवे
स्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोदमानमानसे          दिगंत संतती स्फुरून, मोदतीहि भक्त हे
कृपाकटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदि           कृपाकटाक्ष टाकिता जया, विपत्ति मावळे
क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि॥३॥  कधी दिगंबरामुळे कळे न रंजना मिळे॥३॥
   
जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा-    जटाभुजंग तद्मणी-प्रदीप्त कांति ह्या दिशा
कदंबकुंकुमद्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे        कदंब-पुष्प-पीत-दीप्त, शोभती झळाळत्या
मदांधसिंधुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे       गजासुरोत्तरीय ज्या विभूषवी दिगंबरा
मनो विनोदद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि॥४॥  प्रती जडो मती, घडो मनोविनोद, तारका॥४॥

सहस्रलोचनप्रभृत्य शेषलेखशेखर-      सहस्रलोचनादि देव, पादस्पर्शता सदा
प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः     तयांस भूषवित त्या, फुलांनि भूषती पदे
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः      भुजंगराज हार हो नि बांधतो जटाहि तो
श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः॥५॥ प्रसन्न भालचंद्र तो चिरायु संपदा करो॥५॥
   
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिंगभा-    कपाल-नेत्र-पावका क्षणात मोकलूनिया
निपीतपंचसायकं नमन्निलिंपनायकम्‌   वधी अनंग, हारवी सुरेंद्र आदि देवता
सुधामयुखलेखया विराजमानशेखरं     शिरास भूषवीतसे सुधांशुचंद्र ज्याचिया
महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तु नः॥६॥ कपालिना, जटाधरा, दिगंत संपदा करा॥६॥

करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वल-   अनंग ध्वंसिला जिने, त्रिनेत्रज्योत तीच ती
द्धनंजयाहुतीकृत प्रचंडपंचसायके       नगाधिराज-नंदिनी-स्तनाग्र भाग वेधती
धराधरेंद्रनंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-      सुचित्र रेखते तिथे जयाचि दृष्टी योजुनी
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचनेरतिर्मम॥७॥  त्रिलोचनाप्रती मना, जिवास वाढु दे रती॥७॥
   
नवीनमेघमंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर-     नव्या घनांनि दाटली, निशावसेपरी जशी
त्कुहुनिशीथिनीतमः प्रबंधबद्धकंधरः    जटानिबद्धजान्हवीधरा प्रभा विभूषवी
निलिम्पनिर्झरिधरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः  गजेंद्र-चीर-शोभिता शशीकला प्रकाशवी
कलानिधानबंधुरः श्रियं जगद्धुरंधरः॥८॥ जगास धारका कृपा करून ’श्री’स वाढवी॥८॥
   
प्रफुल्लनीलपंकज प्रपंचकालिमप्रभा-    प्रफुल्ल नीलपंकजापरी प्रदीप्त कंठ ज्या
वलंबिकंठकंधरारुचि प्रबंधकंधरम्‌      जये त्रिपूर ध्वंसिला, तसाच कामदेव वा
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं  भवास तारणार आणि याग ध्वंसत्या हरा
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे॥९॥ भजेन शंकरास मी, गजांतका यमांतका॥९॥
   
अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी-     कलाबहारमाधुरीस भृंग जो शिवा असे
रसप्रवाहमाधुरी विजृंभणामधुव्रतम्‌      अनंगहंत आणि जो त्रिपूर, याग ध्वंसतो
स्मरांतकं पुरातकं भवांतकं मखांतकं    भवास तारका हरा, सदा शुभंकरा हरा
गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे॥१०॥ भजेन त्या शिवास मी, गजांतका यमांतका॥१०॥
   
जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमश्वस-      गतीस्थ सर्पहार जे, विषाग्नि सोडती असे
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुर त्करालभालहव्यवाट्-  फणा उभा करून ते, कपालि ओतती विषे
धिमिद्धिमिद्धिमि द्ध्वनन्मृदंगतुंगमंगल-   मृदंगनाद गाजतो, ध्वनी मनास मोहतो
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवःशिवः॥११॥ पवित्र तांडवी शिवा, विराजतो नि शोभतो॥११॥

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकस्रजो-  शिळा नि शेज, मोतियांचि माळ, साप वा असो
र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः      जवाहिरे नि मृत्तिका, विपक्ष, मित्र वा असो
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः      तृणे नि कोमलाक्षि, नागरिक वा नरेंद्र वा
समप्रवृत्तीकः कदा सदाशिवं भजाम्यम्‌॥१२॥ करून भेद नाहिसे, कधी भजेन मी शिवा॥१२॥
   
कदा निलिंपनिर्झरी निकुंजकोटरे वसन्‌    कधी शिरी धरून हात, शंकरा स्तवेन मी
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌   वसेन जान्हवीतिरी विमुक्त होउनी मती
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नकः     सुनेत्रचंचलेचिया कपालिचा ’शिवाय’ ही
शिवेतिमंत्रमुच्चरन्‌कदासुखीभवाम्यहम्‌॥१३॥ चिरायुसौख्यपावण्याकधी सदास्मरेनमी॥१३॥
   
निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-  पदी विनम्र देवतांशिरी कळ्या, कदंब जे
निगुम्फनिर्भक्षरन्मधूष्णिकामनोहरः        तये चितारली, मनोज्ञ रूप रेखली, पदे
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहर्निशम्‌    विभूषति, सुशोभति, मनोहराकृतींमुळे
परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषांचयः॥१४॥  प्रसन्न ती करो अम्हा सदाच सौरभामुळे॥१४॥
   
प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी    विशाल सागरातल्या शुभेच्छु पावकापरी
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना   महाष्टसिद्धिकामना करीत सर्व सुंदरी
विमुक्त वामलोचनो विवाहकालिकध्वनिः  विवाहकालि शंकरा व पार्वतीस चिंतिती
शिवेतिमन्त्रभूषगोजगज्जयायजायताम्‌॥१५॥ जगासजिंकताठरोशिवायमंत्रताध्वनी॥१५॥
   
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तमं स्तवं   सदा करून मोकळ्या स्वरात श्लोक पाठ हे
पठन्स्मरन्‌ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेति संततम्‌   स्मरून वा श्रवून हे, विशुद्धता सदा मिळे
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं   हरीप्रती, गुरूप्रती, रती, न वेगळी गती
विमोहनंहिदेहिनांसुशंकरस्यचिंतनम्‌॥१६॥ अशाजिवास मोहत्या शिवाप्रतीसदारुची॥१६॥
   
पूजाऽवसानसमये दशवक्त्रगीतं      पूजासमाप्तिस संध्येस म्हणेल जो हे
यः शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे       लंकेशगीत शिवस्तोत्र अनन्य-भावे
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां      शंभू तया, रथ-गजेंद्र-तुरंग-स्थायी
लक्ष्मींसदैव सुमुखिं प्रददाति शम्भुः ॥१७॥  लक्ष्मी प्रसन्न-वदना, वर-दान देई ॥१७॥
   
॥ इति श्री. रावणकृतं                अशाप्रकारे, श्री. रावण विरचित
शिव-तांडव स्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥          शिव-तांडव स्तोत्र संपूर्ण होत आहे.

मराठी अनुवाद श्री.नरेंद्र गोळे यांनी केला आहे.   
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॥ रावण रचित शिव तांडव स्तोत्र ॥
  हिंदी भाषांतर


।।१।। सघन जटामंडल रूप वन से प्रवाहित होकर श्री गंगाजी की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ प्रदेश को प्रक्षालित (धोती) करती हैं, और जिनके गले में लंबे-लंबे बड़े-बड़े सर्पों की मालाएँ लटक रही हैं तथा जो शिवजी डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्याण करें।

।।२।। अति अम्भीर कटाहरूप जटाओं में अतिवेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की चंचल लहरें जिन शिवजी के शीश पर लहरा रही हैं तथा जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालाएँ धधक कर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे बाल चंद्रमा से विभूषित मस्तक वाले शिवजी में मेरा अनुराग (प्रेम) प्रतिक्षण बढ़ता रहे।

।।३।।पर्वतराजसुता के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परम आनंदित चित्त वाले (माहेश्वर) तथा जिनकी कृपादृष्टि से भक्तों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, ऐसे (दिशा ही हैं वस्त्र जिसके) दिगम्बर शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा।

।।४।। जटाओं में लिपटे सर्प के फण के मणियों के प्रकाशमान पीले प्रभा-समूह रूप केसर कांति से दिशा बंधुओं के मुखमंडल को चमकाने वाले, मतवाले, गजासुर के चर्मरूप उपरने से विभूषित, प्राणियों की रक्षा करने वाले शिवजी में मेरा मन विनोद को प्राप्त हो।

।।५।। इंद्रादि समस्त देवताओं के सिर से सुसज्जित पुष्पों की धूलिराशि से धूसरित पादपृष्ठ वाले सर्पराजों की मालाओं से विभूषित जटा वाले प्रभु हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।

।।६।। इंद्रादि देवताओं का गर्व नाश करते हुए जिन शिवजी ने अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से कामदेव को भस्म कर दिया, वे अमृत किरणों वाले चंद्रमा की कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटा वाले, तेज रूप नर मुंडधारी शिवजीहमको अक्षय सम्पत्ति दें।

।।७।। जलती हुई अपने मस्तक की भयंकर ज्वाला से प्रचंड कामदेव को भस्म करने वाले तथा पर्वत राजसुता के स्तन के अग्रभाग पर विविध भांति की चित्रकारी करने में अति चतुर त्रिलोचन में मेरी प्रीति अटल हो।

।।८।। नवीन मेघों की घटाओं से परिपूर्ण अमावस्याओं की रात्रि के घने अंधकार की तरह अति गूढ़ कंठ वाले, देव नदी गंगा को धारण करने वाले, जगचर्म से सुशोभित, बालचंद्र की कलाओं के बोझ से विनम, जगत के बोझ को धारण करने वाले शिवजी हमको सब प्रकार की सम्पत्ति दें।

।।९।। फूले हुए नीलकमल की फैली हुई सुंदर श्याम प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कंधे वाले, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों के काटने वाले, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुरहंता, अंधकारसुरनाशक और मृत्यु के नष्ट करने वाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।

।।१०।। कल्याणमय, नाश न होने वाली समस्त कलाओं की कलियों से बहते हुए रस की मधुरता का आस्वादन करने में भ्रमररूप, कामदेव को भस्म करने वाले, त्रिपुरासुर, विनाशक, संसार दुःखहारी, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुर तथा अंधकासुर को मारनेवाले और यमराज के भी यमराज श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।

।।११।। अत्यंत शीघ्र वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से क्रमशः ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्नि वाले मृदंग की धिम-धिम मंगलकारी उधा ध्वनि के क्रमारोह से चंड तांडव नृत्य में लीन होने वाले शिवजी सब भाँति से सुशोभित हो रहे हैं।

।।१२।। कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शय्या में सर्प और मोतियों की मालाओं में मिट्टी के टुकड़ों और बहुमूल्य रत्नों में, शत्रु और मित्र में, तिनके और कमललोचननियों में, प्रजा और महाराजाधिकराजाओं के समान दृष्टि रखते हुए कब मैं शिवजी का भजन करूँगा।

।।१३।। कब मैं श्री गंगाजी के कछारकुंज में निवास करता हुआ, निष्कपटी होकर सिर पर अंजलि धारण किए हुए चंचल नेत्रों वाली ललनाओं में परम सुंदरी पार्वतीजी के मस्तक में अंकित शिव मंत्र उच्चारण करते हुए परम सुख को प्राप्त करूँगा।

।।१४।। देवांगनाओं के सिर में गूँथे पुष्पों की मालाओं के झड़ते हुए सुगंधमय पराग से मनोहर, परम शोभा के धाम महादेवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानंदयुक्त हमारेमन की प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें।

।।१५।। प्रचंड बड़वानल की भाँति पापों को भस्म करने में स्त्री स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रों वाली देवकन्याओं से शिव विवाह समय में गान की गई मंगलध्वनि सब मंत्रों में परमश्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित, सांसारिक दुःखों को नष्ट कर विजय पाएँ।

।।१६।। इस परम उत्तम शिवतांडव श्लोक को नित्य प्रति मुक्तकंठ सेपढ़ने से या श्रवण करने से संतति वगैरह से पूर्ण हरि और गुरु मेंभक्ति बनी रहती है। जिसकी दूसरी गति नहीं होती शिव की ही शरण में रहता है।

।।१७।। शिव पूजा के अंत में इस रावणकृत शिव तांडव स्तोत्र का प्रदोष समय में गान करने से या पढ़ने से लक्ष्मी स्थिर रहती है। रथ गज-घोड़े से सर्वदा युक्त रहता है।

॥ इति शिव तांडव स्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥




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