श्री गणपती अथर्वशीर्ष हे गणेशाचे स्तोत्र आपल्या सर्वांच्या परिचयाचे आहे. अनेक लोक त्याची नियमित पारायणे करतात. गणेशदास या आजच्या काळातल्या पंडिताने या स्तोत्रावर एक विस्तृत असे ओवीबद्ध भाषांतर लिहिले आहे. ते मी जसेच्या तसे खाली दिले आहे.
श्रीविनायकाची उपासना आणि गणेशपुराणावरील लेख व मराठी रूपांतर या पानावर पहा.
https://anandghan.blogspot.com/2021/07/blog-post_15.html
********************************
गणपति अथर्व शीर्ष (संस्कृत)
शान्ति पाठ: : (अथर्ववेदीय)
ॐ भद्रम् कर्णेभि: शृणुयाम देवा:|
ॐ भद्रम् पश्येम अक्षिभि: यजत्रा : |
स्थिरै: अंगै: तुष्टुवांस: तनूभि: व्यशेम देवहितं यदायु :
ॐ स्वस्तिन इन्द्रो वृद्धश्रवा: | स्वस्तिन: पूषा विश्व वेदा:
स्वस्तिन: तार्क्ष्यो अरिष्टनेमि:| स्वस्तिन: बृहस्पति: दधातु |
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: |
शान्ति पाठ: (कृष्ण यजुर्वेदीय)
ॐ सहना ववतु | सह नौ भुनक्तु |
सह वीर्यम् करवावहै | तेजस्विनौ अधीतम् अस्तु |
मा विद्विषावहै |
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: |
***************
१) नमन प्रार्थना :
ॐ नमस्ते गणपतये | त्वमेव प्रत्यक्षम् तत्त्वमसि |
त्वमेवकेवलम् कर्ताऽसि | त्वमेवकेवलम् धर्ताऽसि | त्वमेवकेवलम् हर्ताऽसि |
त्वमेवसर्वम् खलु इदं ब्रह्मासि | त्वम् साक्षात् आत्माऽसि नित्यम् |
२) रक्षा कवच प्रदानार्थ प्रार्थना :
ऋतं वच्मि | सत्यम् वच्मि | अव त्वम् माम् | अववक्तारम् | अव श्रोतारम् | अव दातारम् | अव धातारम् | अव अनूचानम् अवशिष्यम् |
अव पश्चात्तात् | अव पुरस्तात् | अव उत्तरात्तात् | अव दक्षिणात्तात् | अव च ऊर्ध्वात्तात् | अव अधरात्तात् |
सर्व तो माम् पाहि पाहि समंतात् |
३) सूक्ष्म रूप दर्शनम् :
त्वम् वाङ्मय: | त्वम्चिन्मय: | त्वम् आनन्दमय: | त्वम् ब्रह्ममय: |
त्वम्सत्-चित्-आनन्द अद्वितीयोऽसि |
त्वम्प्रत्यक्षम् ब्रह्मासि | त्वम् ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि |
४) स्थूल विश्व रूप दर्शन :
सर्वम् जगदिदम् त्वत्तो जायते | सर्वम् जगदिदम् त्वत्तः तिष्ठति | सर्वम् जगदिदम् त्वयि लयम् एष्यति | सर्वम् जगदिदम् त्वयि प्रत्येति |
त्वम् भूमि: आपोऽनलोऽनिलोनभ: |
५) सूक्ष्म विश्व रूप दर्शनम् :
त्वम् चत्वारि वाक् पदानि |
त्वम् गुणत्रयातीत:| त्वम् देहत्रयातीत:| त्वम् कालत्रयातीत:|
त्वम् मूलाधार: स्थितोऽसि नित्यम् |
त्वम् शक्तित्रयात्मक :|
६) सूक्ष्म ध्यान धारणा तथा एकाक्षर जपमन्त्र स्वरूपा :
त्वाम् योगिनो ध्यायन्ति नित्यम् |
त्वम् ब्रह्माः, त्वम् विष्णु:, त्वम् रुद्र:, त्वम् इन्द्र:, त्वम् अग्नि:, त्वम् वायु:, त्वम्सूर्य:, त्वम् चन्द्रमा, त्वम्भु: भुव: स्व: ॐ
गणादिम् पूर्वम् उच्चार्य वर्णादिम् तद नंतरं | अनुस्वार: परतर: | अर्धेन्दु लसितम् तारेण ऋद्धम् | एतत् तव मनु स्वरूपम् |
'ग'कार: पूर्व रूपम् | अकारो मध्यम रूपम् | अनुस्वार: च अन्त्य रूपम् | बिन्दु: उत्तर रूपम् |
नाद: संधानम् | संहिता संधि: |
७) गणेश विद्या ऋषि छन्द देवता नमनम्
स एषा गणेश विद्या | गणकऋषि: | निचृद्गायत्री छन्द: | गणपति: देवता |
८) अनेकाक्षर जप मन्त्र स्वरूपा :
ॐ गं गणपतये नम: |
ॐ एकदन्ताय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दन्ती प्रचोदयात् |
९) स्थूल ध्यान धारणा मन्त्रा:
एकदन्तम् चतु: हस्तम्पाशम् अंकुश धारिणम् |
रदम् च वरदम् हस्तै: बिभ्राणम् मूषक ध्वजम् ||
रक्तम् लम्बोदरम् शूर्पकर्णकम् रक्त वाससम् |
रक्त गन्धानुलिप्ताङ्गम् रक्त पुष्पै: सुपूजितम् ||
भक्त अनुकम्पिनम् देवम् जगत् कारणम् अच्युतम् |
आविर्भूतम् च सृष्ट्यादौ प्रकृते: पुरुषात् परम् ||
एवम् ध्यायति यो नित्यम् स योगी योगिनाम् वर: |
१०) अंतिम स्मरण वन्दनम्
नमो व्रातपतये, नमो गणपतये, नम: प्रमथपतये, नम: ते अस्तु |
लम्बोदराय एकदन्ताय विघ्ननाशिने शिवसुताय श्रीवरद मूर्तये नम: ||
११) सदुपयोग प्रयोजनम्
एतद् अथर्वशीर्षम् य: अधीते | स ब्रह्मभूयाय कल्पते |
स सर्व विघ्नै: न बाध्यते | स सर्वत: सुखमेधते |
स पञ्च महापापात् प्रमुच्यते |
सायम् अधीयान: दिवस कृतम् पापम् नाशयति |
प्रात: अधीयान: रात्री कृतम् पापम् नाशयति |
सायम् प्रात: प्रयुञ्जान: अपापो भवति |
सर्वत्र अधीयान: अपविघ्न: भवति | धर्म अर्थ काम मोक्षम् च विन्दति |
इदम् अथर्वशीर्षम् अशिष्याय न देयम् |
यो यदि मोहात् दास्यति | स पापीयान् भवति |
१२) फलश्रुती तथा प्रार्थना :
सहस्त्रावर्तनात् यम् यम् कामम् अधीते तम् तम् अनेन साधयेत् |
अनेन गणपतिम् अभिषिञ्चति | स वाग्मीभवति |
चतुर्थ्याम् अनश्नन् जपति स विद्यावान् भवति |
इति अथर्वण वाक्यम् |
ब्रह्मादि आवरणम् विद्यात् | न बिभेति कदाचन इति |
यो दुर्वाङ्कुरै: यजति | स वैश्रवणोपमो भवति |
यो लाजै: यजति | स यशोवान् भवति | स मेधावान् भवति |
यो मोदक सहस्रेण यजति स वाञ्छित फलम् अवाप्नोति |
य: साज्य समिद्भि: यजति | स सर्वम् लभते | स सर्वम् लभते |
अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग् ग्राहयित्वा सूर्य वर्चस्वी भवति |
सूर्यग्रहे महानद्याम् प्रतिमा सन्निधौ वा जप्त्वा सिद्धमन्त्रो भवति |
महा विघ्नात् प्रमुच्यते | महा पापात् प्रमुच्यते | महा दोषात् प्रमुच्यते |
स सर्वविद् भवति | स सर्वविद् भवति |
य एवम् वेद | इति उपनिषत् |
----------------------- =============== ------------------------
गणपति अथर्व शीर्ष (ओवीबद्ध मराठीत अनुवादित भावार्थ )
ॐ श्री गणेशाय नम: |
एकदा गणेश चतुर्थी समयी | भक्त मण्डळी गोळा झाली | "या वर्षीच्या उत्सव समयी" | नव नव्या कार्यक्रम विवंचनेला (१)
दर वर्षी गणेश मुर्ती पूजुनी | सामूहिक आरती स्तोत्रे गाउनी | प्रसाद भक्षण, नाच, गाणी | कार्यक्रम हा तर ठरलेलाच (२)
यंदा "गणपति अथर्व शीर्ष" | जाणून घेऊ अर्थ यथार्थ | शब्दार्थ, भावार्थ, गुह्यार्थ | समजून घेउया नीट सारा (३)
शान्ति पाठा सहित सारा | अर्थ मराठीत सांगणारा | 'वक्ता' एक उभा केला | श्रोते भक्त जमा झाले (४)
वक्ता विनवी श्रोतयासी | बोलविता 'गणेश', जिव्हा माझी | 'अगम्य अग्राह्य' वाटल्या क्षणी | 'प्रश्न' उपस्थित करा सारे (५)
उत्तर यथार्थ ऐकोनिया | चित्ती 'समाधान' पावोनिया | नंतरच पुढे पुढे जाउ या | येणेचया सत्कार्यास 'सिद्धी' (६)
"शिव भक्तांना म्हणती 'शैव' | अथवा 'स्मार्त' वा वीरशैव | हरि भक्तांना म्हणती 'वैष्णव' | शक्ती उपासक 'शाक्त' जाणावे (७)
तैसेच गणेश भक्त 'गाणेश' | ऋषीत भृगू, मुद्गल मुख्य | च्यवन, भृशुण्डी हे पौराणिक | ऐतिहासिक मोरया गोसावी जी (८)
पेशवे थोरले माधवराव | चिमाजीअप्पादिक गण्यवर | फडके, रास्ते आदि सरदार | हे सर्व 'गाणेश' इतिहासि जमा (९)
यान्च्याच मुळे 'पुण्य' नगरी जवळची | 'अष्टविनायक' मन्दिरे सगळी | दुरुस्त झाली, सजविली गेली | प्रसिद्धी पावली जगभरात (१०)
ऐशा सर्व गाणेशास स्मरुनी | वन्दन अर्पुनी त्यान्च्या चरणी | त्यान्चा शुभ आशिर्वाद घेउनी | प्रारम्भ करु या" म्हणे वक्ता (११)
"प्रत्येक उपनिषद् पठणारम्भी | तसेच पठणा नंतर शेवटी ही | एक 'शान्तिपाठ' प्रार्थना म्हणावी | ऐशी रूढी वा परिपाठ आहे (१२)
ज्या वेदात जे उपनिषद | त्या वेदाचा जो 'शान्तिपाठ' | जी त्यावेदाची 'खूण' वा 'ओळख' | म्हणताच सूचक 'लाभार्थादिका' (१३)
'गणपति अथर्व शीर्ष' पठणारम्भी | 'शान्तिपाठ' ॐ भद्रम् कर्णेभि: | याअथर्ववेदीय पाठा सोबती | कृष्ण यजुर्वेदीय पाठही म्हणती " (१४)
शान्ति पाठ: (अथर्ववेदीय ):
ॐ भद्रम् कर्णेभि: शृणुयाम देवा:|
ॐ भद्रम् पश्येम अक्षभि: यजत्रा : |
स्थिरै: अंगै: तुष्टुवांस: तनूभि: व्यशेम देवहितं यदायु :
हे ॐ स्वरूपी परमेश्वरा | आमच्या कर्णी शुभच येउ द्या | डोळ्यांनाही शुभच दाखवा | अशुभ अमंगळ न घडो कांहिही (१)
या आमच्या शरीरातील | धष्ट पुष्ट होवोत सर्व अंगांग | सुस्थिर सक्षम आरोग्यवंत | मन, बुद्धी, अंत:करणादिकही (२)
आमुचे नेत्र, कर्णादिक | रसना, घ्राण , त्वचादिक | पञ्चही ज्ञानेन्द्रिये भद्र | आरॊग्य पूर्ण असावी (३)
हस्त द्वय , पाद द्वय | वाक्, श्वसनेन्द्रिय, पचनेन्द्रिय | हृद्-रक्ताभिसरणादिक | सर्वही 'भद्र' रहावी (४)
ऐशिया स्वस्थ सुभद्र तनूंनी | आम्ही दैवी कार्ये करावी | आयुष्ये त्यास्तवच झिजवावी | अंतिम श्वासा पर्यन्त (५)
ॐ स्वस्तिन इन्द्रो वृद्धश्रवा: | स्वस्तिन: पूषा विश्व वेदा: |
स्वस्तिन: तार्क्ष्य: अरिष्टनेमि:| स्वस्तिन: बृहस्पति: दधातु |
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: |
हे इन्द्र वृद्धश्रवादिक देवता | पूषा तार्क्ष्य कश्यपादिका | विश्व ज्ञात्या ऋषि मुनि जनादिका | विनंती तुम्हा सकलिकासी (६)
हे अरिष्टनेमि, बृहस्पति | तुमच्या सर्वान्च्या आशिर्वादांनी | तीनही जगतात शान्ती नांदावी | सौख्य, स्वास्थ्यसंवर्धावे (७)
नैसर्गिक घटना सुरांत घडाव्या | बेसूर, बेताल, दुर्घटना टळाव्या | एवढ्या मागण्या पुरवाव्या | विनंती तुम्हा सकलिकासी (८)
श्रोते म्हणती "इन्द्र बृहस्पती | दैवते आम्हास माहीत हो ही | 'तार्क्ष्य', पूषा, वृद्धश्रवा ही | देवता मंडळी कोण सांगा" (९)
जे का वैदिक 'तार्क्ष्य' दैवत | पुराणे म्हणती त्यासच 'कश्यप' | द्वादश आदित्यांचा बाप | दैत्य, सर्प, दानवही त्याचीच प्रजा (१०)
पूषा, वृद्धश्रवा तसेच | अरिष्टनेमि प्रार्थिला येथ | लोकप्रियपौराणिक कथांत | नांवे त्यांची अन्य असती (११)
कर्षणे आकर्षितो तो 'कृष्ण' | 'विष्णु' जो अणु रेणूत प्रविष्ट | 'शं' वा 'शुभ'करीतो शिव शंकर | नामे ऐसी कार्यानुरूप (१२ )
म्हणूनच विष्णु, शिव, ललितादिक | सहस्र नामे असती प्रसिद्ध | तैशीच वैदिक दैवतास | लोकप्रिय नांवे असती नाना (१३)
'पूषा' देवता 'पुष्टि' कर्ता | विष्णुचाच अंश सूर्य जैसा | सर्व जगताचा पोषक जो का | "खाल्लेले अंगी लावितो" तोही (१४)
'अरिष्ट' म्हणजे इष्ट-अरि | अथवा अरि जो 'इष्ट' कर्मे करी | विघ्नासमच पण 'दुष्ट' नाही | 'अडथळा' वाटे मनास जो (१५)
'अरिष्ट' नामे नाना औषधी | आयुर्वेदी ग्रथित असती | रोग्यास प्यावयास 'अरि' समच भासती | परि इष्टत्वे करिती रोग निवारण (१६)
अष्टशतोऽरिष्ट, पुनर्नवाद्यारिष्ट | फलत्रिकाद्यारिष्ट, गण्डीराद्यारिष्ट | 'अरिष्ट' औषधी ऐशी अनेक | वैद्य अति कष्टे बनवीत होते (१७)
मीठ, मिरची, सुंठ, लसूण | हळद, हिन्ग, साजूक तूप | योग्य प्रमाणांत आरोग्य दायक | 'अति' तरी विषे वा 'अरिष्टे' (१८)
'अरिष्टनेमि' करि 'अरिष्ट' नियमन | जैसा का 'विघ्नराज' गजानन | अथवा 'वैद्यराजा'समानसमजून | 'अरिष्टनेमि'स प्रार्थावे (१९)
'वृद्धश्रवा' जो संवर्धन कारक | जन्मल्या पासून वार्धक्या पर्यन्त | वसुनी प्रत्येक सजीव देहांत | 'आयु' योग्य बदल घडवीत राही (२०)
म्हणुनि पुन: इन्द्रालाच | 'वृद्धश्रवा' ही मारिली हांक | अथवा इन्द्राचाच अंश | अवतार 'वृद्धश्रवा' जाणावा (२१)
कर्णेद्रिय ज्याचे सुवर्धित | ऐकू शके अति सूक्ष्म आवाज | अथवा वार्धक्यामुळे बधिर | किम्वडा विठ्ठल कर्नाटकी (२२)
शब्द व्युत्पत्तिन्च्या विधीतुनी | ऐसेअर्थ वा 'अनर्थ'ही निघती | जाणोनि संदर्भादि संयुक्तिक संगती | योग्य तेवढेच निवडावे (२३)
शान्ति पाठ: ( कृष्ण यजुर्वेदीय ):
ॐ सह नौअवतु | सह नौ भुनक्तु |
सह वीर्यम् करवावहै | तेजस्वि नौ अधीतम् अस्तु |
मा विद्विषावहै |
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: |
हे ॐ स्वरूपी परमेश्वरा | आम्ही मानावे 'सहकार्य' तत्वा | जोडी जोडीने वसावे सर्वदा | संरक्षावे एकमेकासी (२४)
जोडी जोडीने खावे, प्यावे | अभ्यासावे, खेळ खेळावे | नाचावे, गावे कपडे ल्यावे | ध्येय गांठावे आनंदाने (२५)
कार्ये करावी सर्वान्नी मिळून | सर्वान्नी मिळवावे 'तेजस्वि' पण | सकाली उगवत्या सूर्या समान | योग्य समयी अदाहकपणे (२६)
'माझे, माझ्यांचे' नीट व्हावे | इतर परक्यांचे नष्ट व्हावे | ऐशी वृत्ती व अविचार सारे | न स्पर्शावे आमच्या मनास त्यांनी (२७)
'सहकार्य', 'सहजीवन' | 'सहभाग', 'सहभोजन' | 'सहक्रीडा' 'सहगायन' | 'सहमनोरंजन' सर्व काळी (२८)
देही, मनी, जनी, वनी | देशी, परदेशी, जली, स्थली | सर्वत्र नांदावी सुख शान्ती | एवढे मागणे पुरव देवा (२९)
ऐशा या शान्ती पाठा मधील | मागण्या, विनंत्या पूर्ण होतील | ऐसे या ज्ञानयज्ञाने घडेल | गजानना तव कृपेने (३०)
तूच गणांचा 'गण'नायक | नैसर्गिक गणितांचा तूच 'कारक' | 'सिद्धी' 'बुद्धी'न्चाप्रदायक | कार्यारंभी नमन तुजला (३१)
मोददायक ज्ञानांचे 'मोदक' | तव 'प्रसाद' दे मम हस्तांत | 'अतर्क्य' ते तर्क्य 'परशु'ने उकलित | सहाय्यक व्हावे वक्त्यासि त्वा (३२)
घुसावया 'गुह्यांच्या' गुहेत | वक्त्यासबनवुनी वाहन मूषक | कुरतडोनि खावेत 'सुज्ञान' मोदक | गुहेत वावरोनि देवराया (३३)
श्रोत्यासि सुचवुनी 'प्रश्नांची' विघ्ने | वक्त्याससुचवुनी योग्य उत्तरे | नेतृत्वकरावे 'विघ्नराजत्वे' | ऐशी विनंती तुजलागी (३४)
नमुनि विनंती सरस्वतीसी | मोजून मापून शब्दांस बोलवी | ग्राह्य भावार्थ स्पष्ट करवी | अग्राह्य, पसारा टाळोनिया (३५)
'सत्य'च रुचकर प्रियसे बोलवी | 'पथ्य' ते हितकर मधांत घोळवी | 'तथ्य' ते मोजक्याचशब्दांत गुंफवी | मम निमित्ये वाग्देवते (३६)
विनंती ब्रह्मा, विष्णु, महेशा | गुरुदेवा श्रीदत्तात्रेया | इच्छा, ज्ञान, क्रिया शक्तिन्ना | कार्य सिद्धीच्या आशिषास्तव (३७)
ऋक्, यजु:, साम, अथर्व | वेदाचे ऐसे चार विभाग | महर्षी व्यासांनी केले थोर | द्वापर युगांती, अवतरोनी (३८)
त्यातील अथर्व वेदा मधील | एक सूक्त "गणपति अथर्व शीर्ष" | शिव, देवी, नारायण, सूर्य | ऐसीही "अथर्व शीर्ष" सूक्ते (३९)
'सूक्त' म्हणजे जे जे सुउक्त | छान, मोजक्याच शब्दात व्यक्त | 'मार्गदर्शक' अभ्यासावयास | निवडलेल्या 'विषया' विषयी (४०)
गणानाम् पति तो 'गणपति ' | या 'विषया'ची उत्तम माहिती | ज्या सूक्तात असे वर्णिली | तेच "गणपति अथर्व शीर्ष" (४१)
'शीर्ष' म्हणजे डोके वा 'शिर'| हजारो शीर्षे परमेश्वरास | पुरुषसुक्ती हा उल्लेख | 'अथर्वा'स वाङ्मयी शीर्षे नाना (४२)
त्यातील "गणपति" नांवाचे 'शिर'| तेच "गणपति अथर्व शीर्ष" | खूप जनास तोण्डपाठ | अभ्यास करिती फारच थोडे (४३)
"गणपति" पूजेत महाभिषेक | स्नान घालण्यास हे उपयुक्त | २१ वेळा २१ ब्राह्मण | पठविती विनायकी-संकष्टीला (४४)
उपनिषदे 'गणेश' विषया वरती | त्यांतही याची होते गणती | म्हणुन 'वेदान्त' सूक्त म्हणुनही | अभ्यासावे जिज्ञासुंनी (४५)
आणखी तीन मुख्य मुख्यशी | उपनिषदे 'गणेश' विषया वरती | गणेश 'पूर्व' व 'उत्तर' तापिनी | 'हेरम्ब' तिसरे जाणावे (४६)
----------------- ============= ---------------
ॐ श्री गणेशाय नम: | ॐ गं गणपतये नम: | ॐ अष्ट सिद्धिपतये नम: | गणनायका तुज नमन माझे (०.१)
"अहं ब्रह्मास्मि", "तत् त्वम् असि" | "अयम् आत्मा ब्रह्म" स्वरूपी | "प्रज्ञानम् ब्रह्म" ऐसी | चार महा वाक्ये चार वेदी (०.२)
"अहम् ब्रह्मास्मि" वा 'मी ब्रह्मांशच'| "तत् त्वम् असि " वा 'तूहीब्रह्मांशच'| "अयम् आत्मा ब्रह्म " वा 'हा ही ब्रह्मांशच'| वा 'तो ती ते हे सर्व ब्रह्म' (०.३)
"प्रज्ञानम् ब्रह्म" वा 'प्रज्ञान ही ब्रह्मांशच'| ऐशी चार वेदान्ची ही थोर चारच | "महावाक्ये" जे गर्जतात साच | त्यां 'ब्रह्म' रूपासि नमन माझे (०.४)
"तत् त्वम् असि" या महावाक्यी | जोवर्णिला त्यातील 'प्रत्यक्ष' विभाग | तोच 'गणपति अथर्वशीर्षात' | विशेषेण नमिला असे (०.५)
आता 'अथ' पासूनि 'इति' पर्यन्त | तव 'अथर्वशीर्षा' चा सांगण्यास अर्थ | सुलभ मोजक्याच गोड शब्दांत | ऋद्धिबुद्धिपती मज 'मति' द्यावी (०.६)
'वरेण्या'स कथिलीस 'गणेशगीता' | मुद्गलास शिकविली तू 'योग गीता' | या दोनहीन्च्या मार्गदर्शक तत्वा | उपयोग करीन यथा मती मी (०.७)
'उपनिषद्' रूपी या गोमाता | एकशे आठ ज्या प्रमुख त्यांतल्या | त्यांचा आधार सांपडेल जितका | तितकेच बोलीन गणराया (०.८)
ज्ञानेश्वरी वा दासबोधादिक | मराठीसंत वाङ्मय ग्रन्थ | यांतीलही काही भावार्थ | उपयोगीनयथा मती मी (०.९)
ऐसे प्रार्थोनि गणेश्वराला | 'विघ्न'राज विनायकाला | वक्त्याने मग प्रारम्भ केला | 'स्वानंदी' गणेशही ऐकतसे (०.१०)
---------------- ============= ---------------
( आद्यवंदन ) १) नमन प्रार्थना :
ॐ नमस्ते गणपतये | त्वमेव प्रत्यक्षम् तत्त्वमसि |
त्वमेवकेवलम् कर्ताऽसि | त्वमेवकेवलम् धर्ताऽसि | त्वमेवकेवलम् हर्ताऽसि |
त्वमेवसर्वम् खलु इदं ब्रह्मासि | त्वम् साक्षात् आत्माऽसि नित्यम् | (१)
नमन तुजलाहे गणपति | तुच परब्रह्म तत्त्व अससी | विश्वात्मक स्वरूपे तू प्रत्यक्ष दिसशी | तूच कर्ता धर्ता हर्ता (१.१ )
जे जे मम नयनांना दिसे | आघ्राणिता नासिकेस भासे | कानांतअस्तित्व सांगतसे | त्यातून तूच मज प्रत्यक्ष व्यक्त (१.२)
रंग-रूप, रस, गंध | शब्द, स्पर्श असे पञ्च 'अक्ष' | ज्ञानेन्द्रियांच्या द्वारे या पञ्च | तूच प्रति-अक्ष मज 'प्रत्यक्ष' होसी (१.३)
बृंहते, रमते, हीयते | जन्मा येते, जगते, मरते | हेच 'ब्रह्म' समजले जाते | याहून 'पर' तेच 'परब्रह्म' (१.४)
अणू, रेणू, जीव जन्तू | पृथ्वी, नवग्रह, तारे समस्तु | ब्रह्माण्डी वसती त्या त्या वस्तू | सर्वही तव 'ब्रह्म' स्वरूप (१.५)
या सर्वही नाशिवन्ता मधून | 'अविनाशी' उर्जा उर्जातुन | नित्य तूच 'परब्रह्म' | 'अव्यक्त' व्यक्त बुद्धीस होसी (१.६)
तेच तुझे 'आत्मा' स्वरूप | सजीवी 'जीवात्मा' तू 'अव्यक्त' | अनित्य शरीर रूपे व्यक्त | व्यक्त अव्यक्त दोऩ्ही तूच तू (१.७)
नाना अणुंच्या समूहातून | सजीव पेशी होती निर्माण | नाना पेशीन्च्या समूहां मधून | एकेक शरीर जन्मा येई (१.८)
'जीवात्मा' घेई ज्याचा ताबा | ते शरीर 'शिव' सजीव वा | त्यावीण अशिव 'शव' त्यांतल्या | पेशीत, अणूत, रेणूत तूच तू (१.९)
सजीवांचे 'जीवात्मा' स्वरूप | निर्जीवांचेही 'आत्म' स्वरूप | ऐसे तुझे 'परमात्मा' स्वरूप | नित्य, शाश्वत, जाणे बुद्धी (१.१०)
श्रोता एक पुसे वक्त्यास येथे | प्रेतातही मंगल परमात्मा वसे | हे मम बुद्धीस रुचे पटे | ऐसा पुरावा द्यावा मज (१.११)
वक्ता म्हणे "भली" ही तव शंका | गणेश कृपेने निवारीन आता | सर्वा ठायी परिपूर्णत्वता | परमात्म्याची 'व्याख्या'च ऐशी (१.१२)
मृत्यु केंव्हा, कोठे, कधी ? | कसादिक गणितांची उत्तरे सर्वही | गणेश प्रेतांंतही लिहवीत राही | लेखक ब्रह्मा, विष्णु, शिवादिक (१.१३)
हा लेख वाचून वैद्य लिहिती | 'शव विच्छेदन' लेखी माहिती | न्यायाधीश ते लेख वाचिती | 'निर्णय' करण्यास न्याय्य ऐसे (१.१४)
प्रेतांचे घडवुनी विघटन | पंच महाभूती विलयी करण | या नैसर्गिक प्रक्रियेस्तव मिळून | प्रकृती पुरुषादिक कार्यी रत (१.१५)
आता सजीवांचे 'जीवात्मा' स्वरूप | जैसे विशद ब्रह्मोपशदांत | तेही आध्यात्मिक ज्ञान येथ | थोडक्यात व्यक्त करी वक्ता (१.१६)
जागृतीस भोक्ता आत्माराम | त्यास म्हणती 'ब्रह्मदेव' | स्वप्नांचा भोक्ता वैकुण्ठराव | सुषुप्ती 'हर' भोगीतसे (१.१७)
जागृती, स्वप्न आणिक सुषुप्ती | यांस म्हणती 'अवस्था' त्रयी | चतुर्थ समाधिस्थ 'तुर्या' जाणावी | तिचा भोक्ता 'आत्मा' सदाशिव (१.१८)
ऐसे 'साक्षात्' येती अनुभवा | 'जीवात्म्याच्या'च या चार 'गुण'कला | त्यातील 'नित्य' सातत्यता | तूच 'गुणेशा' गणपति (१.१९)
जागृतीत जी जाणीव पूर्वक | कार्य करविते उत्साह पूर्वक | सावित्री ती नमावी नित्य | गायत्री सरस्वती तिची अन्य स्वरुपे (१.२०)
जागृतीत वा 'स्वप्न' स्थितीत | 'स्वप्ने' पाहणे वा रमण्याची ताकत | ती 'रमा'देवी नमावी नित्य | 'लक्ष' वेधक 'लक्ष्मी' जाणोनि घ्यावी (१.२१)
'गाढ' निद्रा दात्री काली | स्नायू स्नायूतील 'शीण' असुरास गिळी | भोक्ता 'शं'कर 'शं' स्थिती करवी | सती पार्वती तिचीच रूपे (१.२२)
'आध्यात्मिक' म्हणजे 'स्वदेही' वा 'पिण्डी' | 'पारमार्थिक' ते जे 'ब्रह्माण्डी'ही | दोनही सत्ये जाणू शके बुद्धी | सद्बुद्धि दात्या गणेश कृपेने (१.२३)
----------------------- =============== ------------------------
(गणेश रक्षा वा कवच )
२) रक्षा कवच प्रदानार्थ प्रार्थना :
ऋतं वच्मि | सत्यम्वच्मि | अव त्वम् माम् | अववक्तारम् | अव श्रोतारम् | अव दातारम् | अव धातारम् | अव अनूचानम् अवशिष्यम् |
अव पश्चात्तात् | अव पुरस्तात् | अव उत्तरात्तात् | अव दक्षिणात्तात् | अव च ऊर्ध्वात्तात् | अव अधरात्तात् |
सर्व तो माम् पाहि पाहि समंतात् |(२)
हितकरसर्वास तेच वदतो | खरे सत्यच मी सांगतॊ | तूच मम वाचेस वदवितॊ | वक्ता श्रोता दोऩ्ही तूच (२.१)
मम संरक्षण तूच करणे | मम वक्तृत्व शक्तीस रक्षणे | मम श्रोतृत्व शक्तीस रक्षणे | पंचही ज्ञानेन्द्रियास रक्षी माझ्या (२.२)
तूच दाता, तूच धर्ता | प्रलयान्त्तीहि तुज अवशिष्टत्वता | अनंत कोटी ब्रह्माण्ड स्वरूपा | जीवात्मा विश्वात्मा सर्व तूच (२.३)
मज जे दाता दातृत्व करिती | त्यांना ती प्रेरणा तूच देशी | दातृत्व शक्ती त्यांची संरक्षिसी | म्हणुनि ते सर्वही तूच देवा (२.४)
तूच मज प्रेरून 'दातृत्व' करविशी | तेंव्हा 'धाता' बनून आशीर्वचशी | ऐशा धात्यांची 'धातृत्व' शक्ती | संरक्षी देवा गजानना (२.५)
'अनूचान' म्हणजे बोलताचि न ये | जे बोलण्याला शब्द अपुरे | तरीही मज थोडक्यांमधे | बोबडे चार शब्द बोलू दे (२.६)
अथवा जे मुके बोलू न शकती | शब्दा अभावी मौन पत्करिती | ऐशा मुक्यांच्या नाना जाती | सर्वास संरक्षी उमापुत्रा (२.७)
तूच 'गुरु', तूच 'शिष्य' | या 'गुरु-शिष्य' परंपरेस | संरक्षिता तूच एक | रक्षण करी हे दयासिन्धो (२.८)
'शिष्य' म्हणजे शिल्लक राहणे | पुरे पुरे म्हणुनी न पळणे | आणखी आणखी शिकवा म्हणणे | 'शिष्यत्व' ऐसे 'शिष्यांत' रक्षी (२.९)
'गुरु'चे अर्थ 'गुरु'गीतेत | नाना व्युत्पत्त्या सहित विशद | ज्ञानदाता, सुज्ञानी श्रेष्ठ | 'गुरुंचे' 'गुरुत्व' संरक्षावे (२.१०)
माता, पिता, आजी, आजोबा | काका, मामा, मावशी, आत्या | जो जिथे भेटे ज्ञानदाता | त्या सर्व गुरूंना संरक्षावे (२.११)
अवधूत गीतेत चोवीस प्रकार | गुरूंचे वर्णिले नमून्या खातर | पृथिवी, वायू, आकाश, आप | अग्नि, चन्द्र, सूर्य, सिन्धू (२.१२)
कपोत, अजगर, मधुमक्षिका | पतङ्ग, गज, हरिण, मधुहा | मीन, अर्भक, वेश्या पिङ्गला | कुमारी, भुन्गा घोन्घावणारा (२.१३)
'कुरर' पक्षी, कोळी कीटक | सर्प, कार्यमग्न लोहार कार्मिक | ऐशियास पाहुनी लक्षपूर्वक | शिक्षण सत्शिष्य घेत राहती (२.१४)
ज्ञानार्जनाच्या स्वशक्तीने | एकलव्य सम सत्शिष्य शिकले | तैशीच सद्बुद्धी क्षमता तू दे | सर्व जिज्ञासू विद्यार्थ्यान्ना (२.१५)
तूच जे जे माझ्या मागे | तूचजे जे माझ्या पुढे | उजवी कडे, डावी कडे | वरती खालती चहूकडे तू (२.१६)
ऐसे सभोवती तव अस्तित्व | म्हणोनि द्यावे मज 'संरक्षण' | सर्वही प्रकारे अलगद | भक्त रक्षका लंबोदरा (२.१७)
पूर्व, पश्चिम, दक्षिणोत्तरी | आग्नेय,नैऋत्य, वायव्य, ईशान्यी | अध, ऊर्ध्व दिशांत दाही | भरून उरलास 'दशांगुले' तु (२.१८)
दाही दिशांचे दश दिक्पालक | 'वास्तु' शास्त्राचे आधार द्योतक | 'नगर' वा 'मंदिर' रचना सहाय्यक | त्यांमधुनि व्यक्त तूच देवा (२.१९)
अंत:, बहि: आंत-बाहेर | आदि, अंती, मध्ये मधील | सर्वही काळी 'काल' रूपात | भरून उरलास अवशिष्टत्वे (२.२०)
सर्व दिशांनी, सर्व काळी | सातत्याने संरक्षण करी | माझे, जगाचे, सर्वान्चेही | हित रक्षण करी अविरतपणे (२.२१)
भु:, भुव:, स्व:, मह: | जन :, तप :, सत्यम् अशा | सप्त स्वर्ग लोकात सा-या |भरून उरलास अवशिष्टत्वे (२.२२)
तल, अतल, वितल, सुतल | तलातल, रसातल वपाताल | अशा सप्तही पातालांत | भरून उरलास अवशिष्टत्वे (२.२३)
इन्द्र लोक , चन्द्र लोक | सूर्य लोक, गंधर्व लोक | वैकुण्ठ, कैलास, ब्रह्म लोकांत | भरून उरलास अवशिष्टत्वे (२.२४)
स्वर्ग, मृत्यू, पाताल त्रैलोक्यी | यम लोकी वा नरक लोकांतही | वरुण लोकी सप्त सागरी | भरून उरलास अवशिष्टत्वे (२.२५)
ऐशा सर्वा ठायी मधून | पाहसी मजकडे लक्ष देऊन | रक्षणदे मज संरक्षून | ऐशी विनंती तुज पायी (२.२६)
अनेक 'रक्षा', 'कवच' स्तोत्रे | संरक्षणास्तव प्रार्थिती दैवते | श्रद्धानुकूल धरुनी रूपे | संरक्षावे तू गजानना (२.२७)
----------------------- =============== ------------------------
३) सूक्ष्म रूप दर्शनम् वर्णनम् च :
त्वम् वाङ्मयस्त्वम् चिन्मय:| त्वम् आनन्दमय: त्वम् ब्रह्ममय:|
त्वम्सत्-चित्-आनन्द अद्वितीयोऽसि |
त्वम्प्रत्यक्षम् ब्रह्मासि | त्वम्ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि | (३)
तूच शब्द ब्रह्म आगळे | गद्य, पद्य, संगीतातले | वाचून, ऐकून, गाऊनिया जे | 'मोद' देते चित्तासी (३.१)
परा पश्यन्ति मध्यमा वैखरी | ऐशा पायऱ्या चढोनि चारी | जिह्वेतुनी उच्चारित जे होई | ते तव 'नाद'-'शब्द' ऊर्जा स्वरूप (३.२)
सजीवातील 'चैतन्य' शक्ती | देहात निवसोनि आनंद घेई | मनासारखी कार्ये घडवी | दशेन्द्रियासी राबवी नित्य (३.३)
मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त | यास म्हणती अंत:करण चातुष्ट्य | चित्तांत क्षिप्त, विक्षिप्त, मूढ | निरुद्ध, एकाग्र पंच प्रामुख्ये (३.४)
पंचही प्रकारे तूच निवससी | पंच भूमि भूमिका चालक तूचि | मूर्ख, पढतमूर्ख, उत्तमादिलक्षणी | दासबोधी किन्चित् वर्णिलेल्या (३.५)
चित्त रमते, हसते, गाते | चित्त क्षुब्ध, प्रक्षुब्ध होते | या चित्त वृत्तिन्च्या निरोधनाते | 'योग' म्हणती पतञ्जली (३.६)
चित्तास जोडी अहंकाराची | "मी करीनच" या जिद्दीची | तशीच ओढ दिशा 'श्रद्धा'त्रयीन्ची | 'यो यत् श्रद्ध:, स एव स:' (३.७)
चित्त भ्रमते, दिङ्मूढ होते | शोक करते, व्याकूळ होते | चित्त शांत समाधिस्थ होते | अवस्था चातुष्ट्य भोक्ता 'चित्त'(३.८)
'मन' संकल्प विकल्प कर्ता | बुद्धीच्या सहाय्ये ठरवी सर्वथा | 'मन' प्रफुल्लितता वा उदासीनता | पोर्णिमा अमावास्येच्या चन्द्रा समान (३.९)
चित्त 'मन' 'बुद्धी'न्च्या पलीकडे | जीवात्म्यांच्या 'आत्म' स्थितीचे | आरशातील 'प्रतिबिम्बा'सारखे | जाणून घ्यावे जिज्ञासुंनी (३.१०)
म्हणोनी गणेश स्वरूप 'चिन्मय' | स्वानंद लोकी रमते तन्मय | राहू शके खंबीर स्थीर | शांत, गंभीर, समाधानी (३.११)
अन्नमय, प्राणमय, मनोमय | ज्ञानमय, आनंदमय पंच कोषांतर्गत | "स्वानंद" लोकी तुझे निजस्थान | ते सर्वही भरून उरशी तू (३.१२)
स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीरी | सजीव, निर्जीवअशरीरी, शरीरी | सगुणी, निर्गुणी, क्षरी , अक्षरी | भरूनही उरशी अवशिष्टत्वे (३.१३)
प्रगट-अप्रगट, दृश्य अदृश्य | व्यक्त-अव्यक्त, गम्य-अगम्य | पर, परात्पर ब्रह्मादिकांतुन | भरूनही उरशी दशांगुले तू (३.१४)
ऐशिया गण्य, अगण्यस्वरूपी | प्रति ज्ञानेन्दिय-अक्ष 'प्रत्यक्ष' होसी | "प्रज्ञानम् ब्रह्म" वाक्यासरशी | ज्ञान, विज्ञानादिक तुझीच स्वरूपे (३.१५)
नेत्रांस साक्षात्कार 'विश्व' स्वरूपी | बुद्धीस निराकार स्वरूपातही | ज्ञाने विज्ञाने ज्ञात होसी | "प्रज्ञान" तव 'विश्वचालक' स्वरूप (३.१६)
प्रत्येक घटना या विश्वातली | 'विधि' नियमानुसारच घडे ती | अणू रेणू वा आकाश गंगेतही | "नियम_पालन" अती कांटेकोर (३.१७)
कोठे ? कधी? काय ? घडावे | या गणितान्ची सर्व उत्तरे | विश्वव्यापी तव गणनयन्त्रे | देत राहती आपोआप (३.१८)
ही स्वयंचालित गणन यान्त्रिकी | तुझीच दैवी किमया शक्ती | "प्रज्ञानम् ब्रह्म" या महावाक्यातुनी | वेदोपनिषदी वर्णिली दिसे (३.१९)
अद्वितीय असे तव सातत्य | अद्वितीयतव 'चैतन्य' स्वरूप | अद्वितीय तव 'आनन्द' स्वरूप | ब्रह्मानन्द वल्लीत वर्णिले थोडे (३.२०)
हजारो अक्ष तव विश्वरूपा | मोजकेच लाभले मानवी देहा | त्यांतून 'प्रत्यक्ष' मानवी बुद्धिला | होसी गणेश्वरा तू कृपेने (३.२१)
----------------------- =============== ------------------------
४) स्थूल विश्व रूप दर्शनम् वर्णनम् च :
सर्वम् जगदिदम् त्वत्तो जायते | सर्वम् जगदिदम् त्वत्तो तिष्ठति | सर्वम् जगदिदम् त्वयि लयम् एष्यति | सर्वम् जगदिदम् त्वयि प्रत्येति |
त्वम् भूमि: आपोऽनलोऽनिलोनभ: | (४)
'अंत' चे मुख्यत: अर्थ दोन | एक 'आंत' दुसरा 'अंतिम' | 'आंत' राहून करिती काम | ती 'अंत:करण' करणे चार (४.१)
पंच ज्ञानेन्द्रिये, पंचकर्मेन्द्रिये | ही इन्द्रियांची 'स्थूल' स्वरूपे | श्वसन, पचनादिक कर्मेन्द्रिये | 'आंत' राहूनही 'स्थूल' असती (४.२)
'स्थूल' म्हणजे फक्त 'मोठे' नाही | लहान ते सर्व 'सूक्ष्म' नाही | सूक्ष्मांचे स्वरूपही विश्वव्यापी | हे प्रथम जाणले पाहिजे (४.३)
'अंत:करण' व पंच कोषांतर्गत | जाणिले गाणेश 'ब्रह्म' स्वरूप | 'पिण्ड' वा प्रत्येक सजीव देहांत | आता विश्वात्मक 'स्थूल' पाहू (४.४)
अणू, रेणू, परमाणू पासुनी | ग्रह, तारे, नक्षत्र, आकाशगंगांतुनी | जाहलेय जे 'व्यक्त' 'अव्यक्ता'मधुनी | त्यांस एक 'स्थूल' 'ब्रह्माण्ड' म्हणती (४.५)
एका या 'ब्रह्माण्ड' उत्पत्तीच्या क्षणी | एका 'बिन्दू' तून 'महास्फोट' घडुनी | बाहेर पडली प्रचण्ड 'शक्ति' ही | ऐसे मानिती शास्त्रज्ञ आजचे (४.६)
हेच दुसऱ्या शब्दांमध्ये | वेदोपनिषदी पुराणी लिहले | 'बिन्दू'स विष्णुची 'नाभी' म्हंटल्रे | 'कारण' म्हंटले "दैवी इच्छा" (४.७)
कमल पुष्पाच्या पाकळ्यांप्रमाणे | दाही दिशांना ब्रह्माण्ड उमलले | प्रगटत प्रसरण होतच चालले | ऐसे दिसे भासे या क्षणी (४.८)
वेदोपनिषदी ही सद्य स्थिती | प्रसरणाचीच मानिली निश्चिती | परी या सद्य 'कल्पा'च्या अंती | 'आकुन्चन' क्रिया जन्मेल (४.९)
त्रेचाळिस लाख वीस हजार संवत्सर | एका चतुर्युगाचा कालमान | ऐशिया एक सहस्रान्ती तत्क्षण | 'कल्पान्त' प्रलय घडेल पुढे (४.१०)
ऐसे केलेले असे 'भाकित' | त्याचा आधार नसेल माहीत | तरीही त्यान्चे असे जे गणित | समजून उमजून पुढे जाणे (४.११)
असो एक 'कल्प' वर्षे 'प्रसरण' | नंतर एक 'कल्प' वर्षे 'आकुन्चन' | 'जगदोत्पत्तिस्थितिलय' कारण | गणित हे सर्वथा गणेशा तुझे (४.१२)
या 'ब्रह्माण्ड' वा ब्रह्मदेवाचा | कल्पान्ती एक 'ब्रह्मदिन' कल्पिला | तीनशे साठ 'ब्रह्मदिन' काला | एक 'ब्रह्मवर्ष' ही व्याख्या केली (४.१३)
ऐशिया शंभर ब्रह्मवर्षान्चे | सरासरी आयुष्य ब्रह्मदेवाचे | त्यानंतर या 'ब्रह्माण्डा' घडे | 'मृत्यु'सम विनाश कल्पिला असे (४.१४)
'विश्वास' ठेवा अथवान ठेवा | प्रथम 'म्हणणे' तरी समजून घ्या | म्हणजेच हा या अथर्वशीर्षातला | भाग उमजेल जिज्ञासूंना (४.१५)
या आपुल्या 'ब्रह्माण्डा'ला | पन्नास 'ब्रह्मवर्ष' आयुष्याला | झालीय पूर्तता ऐशिया तर्का | वेदोपनिषदी मांडले असे (४.१६)
म्हणुनी आजवर हजारो वेळा | या 'आकुन्चन' 'प्रसरण' क्रिया | जाहलेल्या आहेत पुऱ्या | ऐसे म्हणती वैदिक ऋषी (४.१७)
असो हे आयुष्य मानवान्चे | सरासरी शंभरच वर्षे | परंतु तारे ग्रह गोलकान्चे | अनेक अब्ज कोटी वर्षे (४.१८)
विस्फोटातुनी 'ब्रह्माण्ड' जन्मले | अंडाकृती गोलक भासते जे | त्यास उदराकार कल्पिले | चित्र काढोनिया पहावे जी (४.१९)
आता 'उत्पत्ति', 'स्थिति', 'विलय' | या त्रिगुणान्चा तीन रेषात्मक | चित्रांत जोडिले एक 'शिर' | चित्रांतकाढोनि पहावे जी (४.२०)
आता या विश्वांत जे जे घडते | ते सर्व नियमानुबद्धच असते | या नियमान्च्या 'बन्धन' परत्वे | 'शिर' जोडावे 'उदरा'ला (४.२१)
हा 'बन्ध' शुण्डाकार मानिता | 'गजाननाकार' चित्रास आला | उभा 'ॐ'कार स्वरूप दिसला | विश्व चालक 'गण'पति (४.२२)
त्रिगुण ब्रह्मा, विष्णु, महेश | 'उत्पत्ति', 'स्थिति', 'विलय' कारक | गणेश नियमांच्या गणितांस कारक | 'गुणेश' रूपे बुद्धीस दिसे (४.२३)
हा 'बुद्धी'चा 'साक्षात्कार' | चित्रांत नेत्रास होई गोचर | 'वक्रतुण्ड', 'लम्बोदर' | 'प्रत्यक्ष' अक्षांस दृष्टीच्या (४.२४)
या 'ढेरीचा' 'घेर' अवघा | 'काल' गणनेच्या सर्पाने बांधला | नाग मौन्जीबन्धन कटीला | बांधोनि नाचे हो हा 'गण'पति (४.२५)
'ज्ञान' जिज्ञासा स्वरूपी मूषक | 'वाहन' याचे कल्पिले खास | गणित मन्त्रान्चा 'पाश' हस्तांत | बन्धन कारक विश्वास साऱ्या (४.२६)
'होय/नाही', 'चूक/बरोबर' | हा तर्काचा 'परशू' घेउन | 'अज्ञान' असुरांचे करित दमन | विघ्नांचे शमनही करीतसे (४.२७)
ऐसे हे तुझे "स्थूल विश्व रूप दर्शन" | घेता होतसे किन्चित् 'आकलन' | जगदुत्पत्तिस्थितिलय सर्व | ठरवितात गणिते तुझी देवा (४.२८)
'शून्या'तून काहीही कधीही न जन्मते | म्हणोनि विस्फोटा आधीही होते | शून्याकार बिन्दूत 'अव्यक्त' रूपे | विस्फोटामधून जे प्रगट झाले (४.२९)
कालानुसार 'व्यक्त', 'अव्यक्त' | दोऩ्ही रूपाने तव सातत्य | अमृतत्व तथा विश्व व्यापकत्व | जाणण्या योग्य असे देवा (४.३०)
देवा तव दैवी गणन यान्त्रिकी | विश्वव्यापी जसजसे सुचवी | तैशीच घडते विश्वोत्पत्ती | अखिल अनंत ब्रह्माण्डांमध्ये (४.३१)
सर्वाठायी अन्तर्यामी | बसुनि सुचविसी कार्ये सर्व जी | तैशीच घडते उत्पत्ती स्थिती | विलयादिक जागोजागी ही (४.३२ )
उष्णतेचे तापमान | हवेचा दाब इत्यादि मोजुन | तू सांगसी तरी 'घन'रूप जन्मुन | विलय द्रवादिक स्वरूपास होई (४.३३ )
वायु स्वरूपांतही किती अणूंनी | किती वेगांत धांव धांवुनी | तिष्ठत राहणे 'स्थिती' साधुनी | हे सर्व सांगे तव दिव्य गणित (४.३४ )
ऐसा तू उत्पत्ती, स्थिति, लय कारक | प्रत्येक क्षणी कोण? कोणत्या स्थितीत ? | तिष्ठत राहिलाय कोणत्या जागेत? | याचा 'प्रत्यय' तव गणितेच देती (४.३५)
पृथिवी, आप, तेज, वायु | आकाश या पंच महाभूतांतही | रूपी, अरूपी, सर्व स्वरूपी | भरूनही उरशी अवशिष्टत्वे (4.३६)
जे जेपृथक् पृथक् भासे | तेच 'पृथ्वी' स्वरूप तुझे | 'आप्नोति' करण्यास गुंडाळे, घुसे | त्या 'आप' तत्वी प्रगट तूच (४.३७ )
जांपानिहिपीनातां या | सप्त रंगी दृश्य किरणांतल्या | अथवा अदृश्य 'क्ष' आदिकांतल्या | तेज स्वरूपा तुज नमन (४.३८)
शीत, उष्ण तापमानांत | तूच वससी 'अग्नी' स्वरूप | जे जे "वाहते" ते 'वायु' स्वरूप | सर्वान्तर्यामी तुज नमन (४.३९)
प्राण, अपान, व्यान, उदान | समान नांवे पंच प्रकारे प्राण | सर्वही सजीव देहांमधून | कार्ये नाना विधा करिती (४.४० )
नाग, कूर्म आणि कर्कश | देवदत्त, धनंजय | ऐसे आणखी पाच प्रकार | उपनिषदांत सापडती (४.४१)
'प्राण' आंत खेचून नेई | प्राशितान्नाचा ग्रास जसा की | अथवा 'पूरक' श्वसन क्रियाही | अंत:कर्षण नानाविधा (४.४२)
'अपान' वायू उछ्वास, शिन्का | मूत्रमलोत्सर्जन घाम अश्रूदिका | बाहेर टाकण्याच्या या क्रियांना | 'वहनशक्ती' जी तोच वायू (४.४३)
'व्यान' व्योम शरीरी व्यापवी | पचविल्या अन्नांतील पोषक तत्वांसी | अथवा 'टोचून' ज्या घुसविल्या औषधी | सर्वत्र शरीरी पोचवितो जो (४.४४)
'उदान' वायू उलटी वा उचकी | अति रक्त चापे आणवी 'घेरी' | गाठावी उच्च पदे वा पदवी | मानसिक उदान वायू सांगे (४.४५)
'समान' जैसे का रक्ताभिसरण | सर्व शरीरी आक्सीजन | द्रव्ये पोषक वा औषधीक | पुरवठा त्यांचा करीत राही (४.४६)
'वायू' फक्त 'हवा' मुळीच नाही | हे जाणावे जिज्ञासूंनी | चलन वलन दोषे होती व्याधी | धनुर्वात, संधिवात, अर्धान्ग वायू (४.४७)
इलेक्ट्रिकच्या तारा दिसती | स्तब्ध बांधल्या खांबांवरती | पर्ंतू आंत वीज प्रवाह गती | तेही काम वायूचेच (४.४८)
संन्ध्या समयी कपभर दुधांत | घालिता साखर चमचा भर | सकाळी सम प्रमाणात | गोडी कपभरी व्याप्त झाली (४.४९)
देवापुढे लाविली उदबत्ती | सुगन्ध दरवळे संपूर्ण गृही | ऐशा या पंच वायुन्च्या कृती | 'कृती' योग्य ऐशी नामाभिधाने (४.५०)
लांबी, रुन्दी, उन्ची क्षेत्रफळ | गच्च भरलेले वा पोकळ | 'व्याप्ती' व्यापून राहे ते 'स्थल' | 'आकाश' तत्वी प्रगट तूच (४.५१)
मधुर संगीत सुरांमधून | बेसुर, असुर, कर्कशांतुन | 'अल्ट्रा' आदिक अश्रुण्यांतुन | 'शब्द' स्वरूपी 'उर्जा' तूच (४.५२)
असो पंचही महाभूत रूपे | गणेशा तुझीच दिव्य स्वरूपे | ऐशिया तव स्थूल विश्वरूप दर्शने | धन्य मुनि जन होताती (४.५३)
----------------------- =============== ------------------------
५) सूक्ष्म विश्व रूप दर्शनम् वर्णनम् च :
त्वम् चत्वारि वाक् पदानि |
त्वम् गुणत्रयातीत:| त्वम् देहत्रयातीत:| त्वम् कालत्रयातीत:|
त्वम् मूलाधार: स्थितोऽसि नित्यम् |
त्वम् शक्तित्रयात्मक: | (५)
तूच "चत्वारि वाक्" स्वरूपी | परा, पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी | 'परा' जी मूळ उत्स्फूर्तशी प्रगटली | 'पश्यन्ती' बुद्धीस दिसलेले रूप (५.१)
'मध्यमा' जी बुद्धीने शब्दांत गोविली | शब्दान्च्या सरांनी वाक्यांत जडवली | 'वैखरी' शेवटी वाचा जे वदली | श्रीगणेशातव कृपेने (५.२)
त्वम् चत्वारि वाक् पदानि | चार महावाक्ये चारी वेदातली | वर्णिती तुजलाच हे 'ब्रह्मणस्पती' | वेद गर्भित 'गुह्य' परब्रह्म रूपा (५.३)
"अहं ब्रह्मास्मि", "तत् त्वम् असि" | "अयम् आत्मा ब्रह्म" स्वरूपी | "प्रज्ञानम् ब्रह्म" स्वरूप ऐसी | चार महा वाक्ये चार वेदी (५.४)
विवरून बोलून थकल्यावर मुनी | ऐशा चारच 'महावाक्यां'तुनी | वर्णिती, घालण्यासतुज गवसणी | तेच मी मराठीत सांगू पाहे (५.५)
'मी'हि, 'तू'हि, आम्ही, तुम्ही | 'तो'हि, 'हा'हि, 'ही'हि, 'ती'हि | 'हे'हि, 'ते' हि, , 'हे''ते' सर्वहि | भरून उरलास तू 'प्रज्ञान' रूपे (५.६)
'ज्ञान' ते जे 'ज्ञात' होते | 'विज्ञान' विशिष्ट विषयांमधले | अथवा "वैशिष्ट्यपूर्ण" ऐसे | 'प्रज्ञान' प्रखर संपूर्ण पणे (५.७)
"संपूर्ण ज्ञान" तुझे स्वरूप | अनंत प्रकारच्या ब्रह्माण्डी सतत | जे घडते ते कारणासहित | जाणसी फक्त तू 'प्रज्ञान' स्वरूपा (५.८)
स्थूल त्रिगुण "उत्पत्ती, स्थिति, लय" | सूक्ष्मत्रिगुण "सत्व, रज, तम" मय | दोऩ्हीन्चाही घेतो जो अनुभव | तो 'जीवात्मा' गणेशा तूच (५.९)
स्थूल, सूक्ष्मदोऩ्हीही त्रिगुणांच्या पलिकडे | 'स्थूल', 'सूक्ष्म' 'कारण' त्रिदेहांच्या पलिकडे | भूत, भविष्य, वर्तमान त्रिकालांच्या पलिकडे | सातत्ये स्थित तू नित्य अविनाशी (५.१० )
सजीवीदेहांचे तीन प्रकार | 'स्थूल', 'सूक्ष्म' आणखी 'कारण' | 'स्थूल' देह जो अन्न-प्राणमय कोष | पंच महाभूत जनित देह 'स्थूल' (५.११)
'सूक्ष्म' देह दशेन्द्रियांचा चालक | पित्त कफ रक्तादिक स्रवोत्पत्तिकारक | स्वत: 'सूक्ष्म' पण 'स्थूलदेह ' नियन्त्रक | आयुर्लिन्ग अनुरूपी कार्ये करवी (५.१२)
रक्तदाब अथवा रक्तपेशीन्ची | 'गणना' नि 'कार्ये'हि नियन्त्रित करी | देहाग्निचे तापमान सुयोग्य राखी | 'सूक्ष्म-देह' सजीवी 'इन्द्र'सम जाणा (५.१३)
'कारण' कांहीही असो वा नसो | अविरत कार्ये इन्द्रियास करवितो | श्वसन, पचन, रक्ताभिसरण हो | घडविता 'सूक्ष्म' देह जाणून घ्यावा (५.१४)
जीवात्मा जागृत असो वा सुषुप्त | मूर्छित, बेसावध, बेशुद्धीत | स्थूल इन्द्रियान्चा राजा हा सतत | 'सूक्ष्म' देही स्थित कार्ये करवी (५.१५)
बाल्यी दगड, वाळू, माती | शंख, शिम्पले जमवोनि खेळवी | तारुण्यी स्त्री गृहादिकासाठी | युद्धेही घडवी 'कारण' देह (५.१६ )
द्रव्यार्जन, आरोग्यार्जन | नाना सुखांच्या लाभा कारण | नाना लोभांच्या बळी पडून | कार्ये करवी 'कारण' देह (५.१७)
पंचकोषी हा तृतीय देह धारक | देहकार्यान्ना 'कारणे' पुरवीत | मन, बुद्धी, अहंकारी स्थित | 'कारण' देह ही जाणून घ्यावा (५.१८)
त्रिदेहात निवसुनी अतीतही राही | त्यास 'महाकारण' शिवांश म्हणती | सत्-चित्-आनंद-ज्ञानघन स्वरूपी | तो 'जीवात्मा' गणेशा तवांशच (५.१९)
जैसा माझिया मानवी देही | तैसाच विश्वातल्या पशु, पक्ष्यादिकी | मुंगी, डास, झुरळांमधेही | विश्वात्मा तूच नित्य वससी (५.२०)
चरांचेच कोट्यावधी प्रकार | खेचर, भूचर, वनचर, जलचर | वृक्ष, लता, गवत 'अचर' स्थीर | पसरती काण्डात्-काण्डात् दुर्वा (५.२१)
हे सर्व जन्मले आपोआपच | मेन्दू शिवाय, बुद्धीशिवायच | वृक्ष वृद्धीचे ज्ञान 'बीजांत' | बीजे वृक्षाविनाच जन्मली कैसी ? (५.२२)
अंड्याविना पक्ष्यान्ची जोडपी | नर-मादी जन्मली कैसी ? | सोडवावया ही सर्व कोडी | "प्रज्ञानम् ब्रह्म"च उत्तर दिसे (५.२३)
विश्वांत विश्व व्यापक "प्रज्ञान" | तुडुम्ब भरले आधारावीण | 'मूलाधार' त्याचाच घेतल्यावीण | वैश्विक चक्रे न चालती (५.२४)
'भूत' काळी पूर्वी जगून गेले | इतिहासांत आज ते जमा झाले | आज वा उद्या नसतील खात्रिने | ऐशी 'काल' सीमा तुजसी नाही (५.२५)
आजही आहेस, काल होतास तू | उद्याही असशीलच अविनाशी स्वरूप तू | म्हणुनी त्रिकालांच्याही 'अतीत' तू | विश्व व्यापका प्रज्ञाना गणेशा (५.२६ )
जे जे जन्मते, ते ते मरते | काही कालावधीत 'स्थित' राहते | 'सजीव' असो वा 'निर्जीव' असो ते | सर्वास नियम हा प्रकृतीचा (५.२७)
परन्तू जन्मास येत्या पदार्था | 'मूलस्रोत' काही असायलाच हवा | तसेच जे जे जाते विलया | त्याचीही "नवी दशा" असणारच (५.२८)
पंच महाभूते ऊर्जांन्ची स्वरूपे | ऊर्जा कधीही नष्ट न होते | फक्त तिचे स्वरूप बदलत राहते | हाही नियम प्रकृतीचाच (५.२९)
देह तीनही 'प्रकृती' जनित | वयोमाना प्रमाणे वर्धत | 'पुरुष' त्यांतून सुखदु:ख भोगत | मूलाधार शाश्वत त्यास जो, तो तू (५.३०)
देहात निवसे 'क्रिया'शक्ती | पण 'क्रिया' करविते 'इच्छा'शक्ती | कधी ? का? कैसी? 'क्रिया' करावी | 'ज्ञान'शक्तीहे 'ज्ञान' पुरवी (५.३१)
ऐशा या तीन शक्तीन्च्या सहाय्ये | सजीव जन्मभर करिती स्वकार्ये | वस्तुत: या शक्तित्रयात्मके | तूच सन्निध उभा पाठिराखा (५.३२)
----------------------- =============== ------------------------
६) ध्यान धारणा तथा एकाक्षर जप मंत्र स्वरूपा: :
त्वाम् योगिनो ध्यायन्ति नित्यम् |
त्वम् ब्रह्मा, त्वम् विष्णु:, त्वम् रुद्र:, त्वम् इन्द्र:, त्वम् अग्नि:, त्वम् वायु:, त्वम्सूर्य:, त्वम् चन्द्रमा:, त्वम् ब्रह्म, भु: भुव: स्व: ॐ |
गणादिम् पूर्वम् उच्चार्य वर्णादिम् तद नंतरं | अनुस्वार: परतर: | अर्धेन्दु लसितम् तारेण ऋद्धम् | एतत् तव मनु स्वरूपम् |
'ग्'कार: पूर्व रूपम् | 'अ'कारो मध्यम रूपम् | अनुस्वार: च अन्त्य रूपम् | बिन्दु: उत्तर रूपम् |
नाद: संधानम् | संहिता संधि: | (६)
गणेशा तुझ्या विश्वव्यापी | ब्रह्म, परब्रह्म, परमेश्वरी | स्थूल, सूक्ष्मादिक प्रकारांतली | स्वरूपे यथा मति जाणोनिया (६.१)
विश्व नि ईश्वराचे स्वरूप ज्ञान | जाणून घेणे "ज्ञान योग" | अथवा म्हणती "सांख्य योग" | "बुद्धि योग"ही म्हणती त्यासी (६.२)
जे जे कर्म स्वत: केले | ते ते ईश्वरास समर्पित केले | कर्तेपणातील 'मी'पण हरविले | ते कर्म निष्काम कर्मयोग्यान्चे (६.३)
सत्य स्वरूप परमेश्वराचे | आपआपुल्या आवडी प्रमाणे | समजलेत्याचेच गुणगान ऐकिले | वर्णिले, पूजिले 'भक्ति'योगियान्नी (६.४)
ऐसे नाना योगान्चे प्रकार | त्यातीलच एक मुख्य 'राज योग'| अथवा "आत्मसंयमन" नांव | वा "अष्टांग योग" पतञ्जलीन्चा (६.५)
ऐसे योगोपासक नित्य | यम, नियमांचे पाळोनि दंडक | योगासन प्राणायाम क्रिया युक्त | प्रत्याहार भुन्जती योग्य ऐसा (६.६)
नंतर धारणा, ध्यान, समाधी | ऐशिया आठ पायऱ्या चढोनी | गणेशा तव 'स्वानंद' भुवनी | रमती तुझ्या सान्निध्यांत (६.७)
अहिंसा, सत्य, अस्तेय | ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह | हे 'यम' पायरीचेदंडक | अष्टांग आत्मसंयमनाचे (६.८)
शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय | ईश्वर प्रणिधान पाचवा नियम | या यम नियमांना पाळिता चोख | "सात्विकाचरणी" 'संत'प्रवृत्ती (६.९)
'आसन' सुखी स्थैर्य सहित | शारीरिक स्थिती बैठी वा तिष्ठत | उत्ताणे वा पालथे निजत | ताण विरहित 'सहज' ढिलीशी (६.१०)
सूर्य, चन्द्र वा गुरु नमस्कार | करिता नाना आसने सहजच | घडुनी सर्वान्ग होई चपळ | सर्व सांधे निरोगी होती (६.११)
प्राणायामान्च्या प्रकारात | श्वासोच्छ्वासान्चे नियमनच मुख्य | पूरक, अंतर्बाह्य कुम्भक | रेचक, भ्रामरी इत्यादिकांनी (६.१२)
'प्रत्याहार' म्हणजे 'आहार' नियमन | आरोग्यास जो संरक्षक वर्धक | अनारोग्यास मारक निवारक | युक्त प्रमाणात, योग्य वेळी (६.१३)
'धारणा' म्हणजे धरून ठेवणे | चंचल मनाला स्वेच्छा शक्तीने | दृश्य अथवा श्रुत संधानाने | 'लक्षवेधक' उपाय काहीही (६.१४)
नीराञ्जन, मेणबत्ती वा एलीडी | स्व जपित मन्त्र वा मुद्रित ध्वनी | कोणतेही साधन योजुनी | चित्त एकाग्रता साधावी (६.१५)
दृश्य उपाय योजिले तरी | नेत्र उघडे स्थिर राखोनी | पापण्या न मिटण्यांच्या श्रमांनी | नेत्री येती अश्रु धारा (६.१६)
डोळे मिटून मन्त्र 'जप' करणे | अथवा त्यान्ची मुद्रिका ऐकणे | एकाग्रता चित्ताची गाठणे | हा उपाय 'लोकप्रिय' व सोपा (६.१७)
यातही 'निद्रा', डुलकी, स्वप्ने | बाधा या करिती 'धारणेस' विघ्ने | चिकाटीने प्रयत्न चालूच ठेवणे | कार्यसिद्धी गणेश कृपेने अन्ती (६.१८)
आता 'ध्यान' ही पुढची पायरी | त्यास 'उपाय' 'ध्यानमन्त्रादिकी' | चित्त एकाग्र करूनि भोगिती | स्वानंद ईश्वरी दर्शनान्चा (६.१९ )
'ध्यानमन्त्रात' जैसे वर्णिले | तैसेच मानसिक चित्र रेखाटले | एकाग्र चित्ते पहात बसले | योगी ते रमले 'स्वानंद' लोकी (६.२०)
'ध्यानमुर्तीन्चे' नाना प्रकार | गणेशाचे प्रसिद्ध अष्ट अवतार | वा हरि हरांचे नाना अवतार | आवडीने ध्याती "ध्यानयोगी" (६.२१)
ज्या योग्यास ज्या रूपाची आवडी | त्याच रूपाने त्यास 'ध्यान' घडवी | 'प्रचीती' सर्वासही ही येई | आपापुल्या श्रद्धा-भक्तीनुसारे (६.२२)
गणेशा तूच कुणास 'ब्रह्मा' | कुणास 'विष्णू' तर 'रुद्र' कुणा | कुणास देवेन्द्र 'इन्द्र' तर कुणा | 'अग्नी' रूपे दर्शन देशी (६.२३)
कुणास 'वायू' स्वरूप आवडे | कुणास 'सूर्य' वा 'चन्द्रमा' आवडे | कोणी निराकार परब्रह्म निवडे | तद्रूपच भाससी प्रत्येकाला (६.२४)
कुणास 'भूदेवी' वा 'गोमाता' | कुणास 'पैतृक' पितर गणनाथ हा | कल्प वृक्षा तळी नाना कल्पना | 'ध्यानमुर्ती' रूपे नटसीगणेशा (६.२५)
कुणास स्वर्गातिल नाना दैवते | ज्यांत अष्ट दिक्पालक प्रामुख्ये | कुणास 'ॐ'कार, गजानन रूपे | 'ध्यानमुर्ती' रूपे प्रत्यया येसी (६.२६)
'ध्यानमन्त्रा'न्चेहीनाना प्रकार | निर्गुण साधकास प्रमुख 'ॐ'कार | 'गं' ऱ्हीम् आदिक मन्त्र एकाक्षर | जपती योगी नित्य सातत्ये (६.२७)
माण्डी घालूनि, डोळे मिटुनी | मन्त्र ध्याती सामान्य मुनि मनी | जीवन्मुक्तादिक पदांचे धनी | त्यासहे 'बंधन' काही नाही (६.२८)
उठता, बसता, चालता, खेळता | खाता, पीता, कार्ये करिता | श्वासोच्छ्वासा समच मानसा | मन्त्रॊच्चारण घडोघडी घडे (६.२९)
एकशे आठ वा दशसहस्र | लक्ष, कोटी, अब्जादि मोजित | ही सर्व गणना दुर्लक्षित | मन्त्र जप अंग वळणी त्यान्च्या (६.३०)
मन्त्रॊच्चाराचा 'नाद' लागता | हृदय स्पन्दने धरला ठेका | पुण्यकाल, मुहुर्त आदिक चिन्ता | विलयास गेली त्यान्च्या हृदयी (६.३१)
ऐसे संपूर्णपणे 'हित'कर | संधानाने आवळून बांधिला दोर | 'सम' बुद्धि 'धी'च्या होऊन आधीन | 'समाधिस्थ' योगी 'मग्न' होती (६.३२)
'सन्धि:' म्हणजे 'बेरीज' झाली | पूर्णात पूर्णाची भर पडली | जीवात्म्याने परमात्म्याशी | मिठी मारली ब्रह्मानन्दे (६.३३)
शैवांनी मारली मिठी शिवाला | वैष्णवांनी विष्णू हरीला | गाणेशांनी विनायकाला | गणेशेच धरिली रूपे सारी (६.३४)
बौद्धास भेटे 'बुद्ध' होउनी | जैनास 'जिन्', मुमुक्षूस 'मुक्ती' | ज्यांनी जसजशी भावना केली | तैसाच नटतो परमेश्वर (६.३५)
----------------------- =============== ------------------------
७) गणेश विद्या ऋषि छन्द देवता नमनम् :
स एषा गणेश विद्या | गणक ऋषि: | निचृद् गायत्री छन्द: | गणपति: देवता
अशा प्रकारे, वर वर्णिलेल्या | ज्ञानाचे नाम "गणेश विद्या" | 'गणक' नामक ऋषिन्ना
जिचा | झाला साक्षात्कार गणेश कृपेने (७.१)
या विद्येचा 'विषय' वा 'देवता' | आद्य वन्द्य 'गणपति'च, तत्वत: | अथर्व वेदात या विद्येच्या
ऋचा | 'शीर्षा'समान मानलेल्या (७.२)
मुख्यत्वे दोनच छ्न्दात ही विद्या | गुन्फित जाहली असे पठणाला |
'निचृद्' आणखी 'गायत्री' नाम्ना | सुरांत गायना पुन: पुन: (७.३)
हिच्या एकवीस आवर्तनांनी | गणेशास 'महा अभिषेक' घालुनी | पूजा करिती जे जे कोणी | ते
भक्त प्रिय गणेशाला (७.४)
'गण्' क्रियापदे 'गणना' करणे | 'गणित' करण्याचे मन्त्र जाणणे |
'गणित' करुनी 'उत्तर' मिळवणे | या क्रियान्चा स्वामी 'गणपति' (७.५)
प्रत्येक मानवी देहांत वसते | वयोमानाने विकसित होते | अशी ही बौद्धिक शक्तीच
करविते | 'गणिते' मनोप्सिते साधावयाला (७.६)
जणू का बुद्धीचा पति जो 'गणपति' | सूक्ष्मत्वे प्रत्येक देहांत निवसुनी | गणिते करितो दैवी वा
मानवी | ऐशी श्रद्धा गाणेशान्ची (७.७)
नैसर्गिक गणनान्ची देवता ही | 'ब्रह्माण्ड' सृजना पूर्वीच प्रगटुनी |
'ब्रह्माण्ड' विश्वोत्पत्ति, स्थिति, लयी | अणु रेणुन्चीही गणिते करिते (७.८)
प्रत्येक 'ब्रह्माण्डी' ही देवता | 'ब्रह्माण्ड' विश्वव्यापक रूपा | अनंत 'ब्रह्माण्डी' अनंत
आकाशा | व्यापूनही उरते अवशिष्टत्वे (७.९)
म्हणून कोणत्याही नव्या क्षणी | नवे 'ब्रह्माण्ड' जर जन्मेल कधी | तर त्या विस्फोटाच्याहि
आधी | प्रगटेल 'गणपति' त्या घटनेस योग्यसा (७.१०)
अथवा अस्तित्वातले कोणतेही | 'ब्रह्माण्ड' जाईल विलयास जर कधी | तर त्या 'विलुप्ती'च्या
क्षणा सहितची | 'अव्यक्त' होईल 'गणपति' तेथला (७.११)
'अव्यक्त' स्वरूपातील ही अवशिष्टत्वता | कायमच राहते कधीही न
संपता | बुद्धीच्याही 'पर' ही गुह्यता | अनाकलनीय वन्द्य दैवी (७.१२)
'गण' सर्वनामॆ सूचित 'समूह' | त्याचा प्रमुख वा जो कोणी 'नायक' | त्यासही 'गणपति' पदवी
विभूषण | 'नायकत्व' मिळताच प्राप्त होई (७.१३)
म्हणुनि सत्य लोकीचा 'गणपति' ब्रह्मा | विष्णू 'गणपति' त्या
वैकुण्ठपुरीचा | रुद्र 'गणपति' कैलासी शिवगणां | स्वर्गीचा 'गणपति' इन्द्र देव (७.१४)
यागास 'गणपति' अग्नि देवता | वाहकांत 'गणपति' वायु देवता | सूर्य 'गणपति' सौर
मण्डलाचा | नक्षत्रांचा 'गणपति' चन्द्रमा जाणा (७.१५)
ब्रह्मान्चा 'गणपति' परात्पर 'ब्रह्म' | भू मण्डळी 'गणपति' राष्ट्राध्यक्षादिक | भुव
लोकी 'गणपति' अर्यमा देव | त्रैलोक्याचा 'गणपति' 'ॐ'कार (७.१६)
यमदूतांचा 'गणपति' यमराज | यक्षान्चा 'गणपति' वैश्रवण
कुबेर | बृहस्पती 'गणपति' पुरोहितास | 'चित्ररथ' 'गणपति' गन्धर्वान्चा (७.१७)
अशा प्रकारे 'गणपति' ही पदवी | समूहान्च्या नायकांनाही | नायकत्वाची जबाबदारी |
'कर्तुत्व' दाता श्रीगणेश (७.१८)
ऐसा हा देवांचा देव 'गणपति' | कार्यारम्भी देवही स्मरती | त्याच्या गणितान्च्या
सल्ल्यान्च्या 'पाशी' | वैश्विक घटना घडती साऱ्या (७.१९)
----------------------- =============== ------------------------
८) अनेकाक्षर 'जप मन्त्र' स्वरूपा :
ॐ गं गणपतये नम: |
ॐ एकदन्ताय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दन्ती प्रचोदयात् |
'गणपति'स सुप्रसन्न करण्यासाठी | सहस्रो नावांनी हाका मारुनी | 'ॐ' प्रथम, 'नम:' अंती
जोडुनी | 'मन्त्र' बनती लक्षावधी (८.१)
'ॐ श्री गणेशाय नम:' | 'ॐ लम्बोदराय नम:' | 'ॐ विघ्नराजाय नम:' | ऐशी उदाहरणे या
मन्त्रान्ची (८.२)
'ॐ नमो भगवते वक्रतुण्डाय' | 'ॐ नमो भगवते एकदन्ताय' | 'ॐ नमो भगवते
कृष्णपिन्गाक्षाय' | ऐसेही हजारो मन्त्र बनती (८.३)
मन्त्रोच्चारांनी शरीरा मध्ये | निर्माण होतात जी कम्पने | त्यांनी आधिव्याधिन्ची निरसने | काही
प्रमाणात होत जाती (८.४)
श्वासोच्छ्वासा गणिक मन्त्रोच्चारणा | जोडल्यास घडतात 'प्राणायाम' क्रिया | 'आधी' प्रकारच्या
रोगान्चा निचरा | होत जाई यान्च्या मुळे (८.५)
जागे राहूनि कार्ये करिता | सर्वान्गी 'शीण' सांठतच जाता | विश्रान्ती सुषुप्तीत त्यान्ची
स्वच्छता | हा अनुभव नित्य सर्वास होई (८.६)
वेद मन्त्रान्च्या उच्चारणांनीही | ही 'शीण' पापे जातात धुवुनी | मानसिक 'ताण'ही क्षीण
होउनी | आरोग्य संरक्षण घडत राही (८.७)
आधुनिक मानसोपचार शास्त्रज्ञांनीही | 'ध्यान' हा 'उपचार' मान्य करोनी | मानसिक
खिन्नता, ग्लानी साठी | लोकप्रिय हा 'उपचार' केला (८.८)
गाणेश मन्त्रान्च्या यादी मध्ये | जे जास्त 'शक्ति'युत मानले गेले | त्यांची दोनच
उदाहरणे | अथर्वशीर्षात नमूद केली (८.९)
"ॐ गं गणपतये नम:" | हा नवाक्षरी मन्त्र 'गणपति'चा | वदेल अहोरात्र ज्यान्ची वाचा | ते
भक्त गणेशास प्रिय होती (८.१०)
"ॐ एकदन्ताय विद्महे | वक्रतुण्डाय धीमहि | तन्नो दन्ती प्रचोदयात् " हा | गायत्री
छन्दातिल मन्त्र राज (८.११)
हा गणेश गायत्री मन्त्र | उच्चस्वरे वा मनांतल्या मनांत | वदती सातत्याने नित्य | तेही गणेशास
प्रिय होती (८.१२)
या गणेश गायत्री मन्त्राचा | अर्थ मराठीत जाणून घ्यावा | अर्थानुरूप 'भाव' चिन्तीत
जाता | अधिकाधिक 'पुण्य' प्राप्ती होई (८.१३)
'एकदन्त' नावाने मी ज्यास जाणतॊ | जो 'वक्रतुण्ड' मम बुद्धीस प्रिय तो | 'दन्ती' देव तो
मज 'प्रेरक' असो | क्षणोक्षणी प्रचीती पूर्वक (८.१४)
ऐसा अर्थ मन्त्रा मन्त्रान्चा | जाणून ठेवीत तैशीच भावना | सार्थ भावोत्कट मन्त्र जप
करिता | सुप्रसन्न आराध्य दैवते होती (८.१५)
परन्तु मन्त्रोच्चारणान्च्या मध्ये | जो 'कालावधी' शान्त नी प्रिय गमे | त्यांत ढवळा ढवळ करू
नये | सन्ख्याधिक्यादिक संमोहनाने (८.१६)
उलट या शान्तीचा 'कालावधी' | लुटावा काल्पनिक 'ब्रह्मानन्दी' | धारणेत धरलेले 'चित्र' जे
ध्यानी | ते दृश्य राहता वा 'गुप्त' होता (८.१७)
या शान्तीच्या 'कालावधी'त | चिन्तन वा विचार होतील 'कुण्ठित' | तरीही त्याची न
मानता 'खन्त'| चित्ती 'समाधान' बाळगावे (८.१८)
पद्मासन वा वज्रासनादिक | काही आसने जप करण्यास उत्तम | ऐसे असले जरी शास्त्र
वचन | तरी त्याची भीती वा धास्ती नसावी (८.१९)
आपापल्या वय आरोग्यानुसार | जे का बैठे, उभे वा निजून | सुलभ साध्य स्थिर वापरुन
आसन | साधकान्नी जप जपत जावा (८.२०)
बसायला जमीनीवर चादर घडी | सतरन्जी, गादी आरामशीरशी | अथवा
खुर्ची, आरामखुर्ची | सोफा, पलन्ग जे उपलब्ध सहज (८.२१)
धृव उभा राहिला एका पायावर | म्हणून न करा डोके फोड | कटीवर हात ठेवून व्हा 'विठ्ठल'
| भिन्तीस टेकून जप करावा (८.२२)
पालथे वा उत्ताणे पडून | 'शवासना'सम 'शैथिल्य' साधुन | जप करावा डोळे मिटून | झोप
लागली तर लागू द्यावी (८.२३)
'जाग' आल्यावर आठवणीने | मन्त्र जप क्रिया चालू ठेवणे | पुऩ: 'डुलकी' लागल्यास झोपणे |
'जाग' येताच 'जप' पुऩ: पुन: (८.२४)
थोडा वेळ बैठा, थोडा उभ्याने | थोडा वेळ पडून निश्चिन्तपणे | आपापल्या स्वास्थ्य, प्रकृती
प्रमाणे | 'धारणा', 'ध्यान' करीत जावे (५.२५)
----------------------- =============== ------------------------
९) स्थूल ध्यान धारणा मन्त्रा:
एकदन्तम् चतु: हस्तम् पाशम् अंकुश धारिणम् |
रदम् च वरदम् हस्तै: बिभ्राणम् मूषक ध्वजम् ||
रक्तम् लम्बोदरम् शूर्पकर्णकम् रक्त वाससम् |
रक्त गन्धानुलिप्ताङ्गम् रक्त पुष्पै: सुपूजितम् ||
भक्त अनुकम्पिनम् देवम् जगत् कारणम् अच्युतम् |
आविर्भूतम् च सृष्ट्यादौ प्रकृते: पुरुषात् परम् ||
एवम् ध्यायति यो नित्यम् स योगी योगिनाम् वर: |
मानसिक 'चित्र' रेखाटण्याला | उपयुक्त 'धारणा' ध्यानादिकाला | ऐसे
वर्णन 'गणपति' स्वरूपा | अथर्वशीर्षात नमूदले असे (९.१)
हे एकदन्ता चतुर्हस्ता | हाती पाश, रद, अंकुश धर्ता | वरद हस्त मुद्रेने अभय
सूचका | भक्तांवरी कृपा तव असॊ द्यावी (९.२)
मूषक ध्वजा , मूषक वाहना | ब्रह्माण्डोदरा, लम्बोदरा | शूर्पकर्णका, रक्त वस्र
धारका | स्वीकारावे कृपया नमन माझे (९.३ )
रक्त चन्दनाची उटी सर्वान्गी | रक्त पुष्पांची माला परिधानुनी | भक्तांवरी अनुकंपा
धरोनी | रक्षण सर्वदा सर्वथा करावे (९.४ )
या जगत् विश्वातल्या सर्व कार्यान्ना | अच्युत अखण्ड आधार पुरविण्या | प्रकृती-पुरुष
युगुलाच्या जन्मण्या | आधीच आविर्भूत तू सदा होसी (९.५)
तव अव्यक्त निर्गुण स्वरूपी | सृष्टी सृजनाच्या प्रारम्भा आधी | तू स्वेच्छया प्रगट
होऊनी | सगुण व्यक्त 'माया' ही प्रगटविलीस (९.६)
कोणी हजारो वर्षा पूर्वी | कोणी लाखो वर्षा पूर्वी | कोणी कोट्यावधी वर्षा पूर्वी | तारका समूह
कसे होते? (९.७)
ते दृश्य मजला आज या क्षणी | "दिसतेय तसे" तेच सत्य मानोनी | मायावी भास
हा 'प्रत्यक्ष' नयनी | पण बुद्धीस 'मिथ्या' प्रचीतीने (९.८)
आठ दहा मिनिटा पूर्वीच उगवला | तो सूर्य दिसतो मला उगवताना | मायावी हे भास मम
नयना | नित्य क्षणोक्षणी घडविसी देवा (९.९)
आज या क्षणी जे जसे आहे | तैसे ते समजून घ्यायची बुद्धि दे | प्राकृतिक घटनान्च्या गणितान्चे
मन्त्र दे | हे ज्ञानदात्या श्रीगणेशा (९.१०)
दगड धोण्डे हे अणून्चे समूह | अणून्चे वजन अणुनाभीन्च्या बिन्दूत | सभोवती एलेक्ट्रोन
वायुलहरी सम | स्पर्शता काठिण्यता दगडात मायावी (९.११)
अणून्चेच काही समूह 'गोड' | दुसरे कोणी 'क्षार' वा 'तिखट' | इलेक्ट्रानान्च्या ढगान्च्या
ढिगातुन | भास हे मम जिव्हेस का ? व कैसे ? (९.१२)
ऐसे तुझे विश्व व्यापी स्वरूप | मम बुद्धीला दिसावे नीट | त्यांतच रमावे माझे चित्त | हाच
आशीर्वाद दे रे देवा (९.१३)
ऐशा प्रकारे जे जे योगी | नित्य तुजला ध्यानी ध्याती | त्यांना श्रेष्ठ 'योगिवर' ऐशी | मान्यता तव
अथर्वशीर्षी ग्रथित (९.१४)
----------------------- =============== ------------------------
१०) अंतिम स्मरणम् वन्दनम् च
नमो व्रातपतये, नमो गणपतये, नम: प्रमथपतये, नम: ते अस्तु |
लम्बोदराय एकदन्ताय विघ्ननाशिने शिवसुताय श्रीवरद मूर्तये नम: ||
हे 'व्रातपति' तुजला नमन | हे 'गणपति' तुजला नमन | हे 'प्रमथपति' तुजला नमन | तुज
लम्बोदरा नमन माझे (१०.१)
हे 'एकदन्ता' तुजला नमन | हे 'विघ्ननाशिने' तुजला नमन | हे 'शिवसुता' तुजला
नमन | हे 'श्रीवरद मूर्ति' नमन तुजला (१०.२)
'व्रत' आचरणारे जे धार्मिकादिक | 'व्रती'न्च्या समूहांस 'पति' गणनायक | अति काटेकोर
गणिती गणेश | हे 'व्रातपति' तुज नमन माझे (१०.३)
नाना गणान्चॆ 'पति' ते 'गणपति' | हरि, हर, ब्रह्मादिक देवाधिपती | नायकान्चे गुण, कर्तुत्व
शक्ती | दैवी 'पति' 'पदवी'धरास नमन माझे (१०.४)
मथनात 'प्रमथन' "बौद्धिक चिन्तन" | 'चिन्तामणि:' त्वम् अससी गजानन | असंख्य दैवी
गणितान्चे 'प्रमथन' | कर्त्या 'प्रमथपति'स नमन माझे (१०.५)
'ब्रह्माण्ड' गोलच ज्याचे उदर | 'काल'सर्पाचे 'मौन्जी'बन्धन | ऐसे तव सगुण स्वरूपाचे 'ध्यान' |
'लम्बोदरा' तुज नमन माझे (१०.६)
'दन्ता'सम चूप टोक वा शिखर | टोचोनि विघ्नान्चा करितोस चूर | दात्यांमध्ये तू श्रेष्ठात श्रेष्ठ |
'एकदन्ता' तुज नमन माझे (१०.७)
सत्कार्यान्ना आड येती | त्या विघ्नांचा विनाश करिसी | आद्य वन्द्यत्व तुज कार्यारम्भी |
'विघ्ननाशिने' तुज नमन माझे (१०.८)
'कार्य' कोणते ? कशासाठी ?| कुणी करावे ? कैसे ? कधी कधी ? | कोणत्या स्थळी ? कोणत्या
काळी ? | कोण कोण अतिथी बोलवावे ? (१०.९)
'खर्च' होईल किती व कधी कधी ? | व्यवस्था त्याची कशी करावी ? | परवानग्यान्ची पत्रॆ
कशी ? | मेळवावी इत्यादिक (१०.१०)
कोण कोण येतील सहाय्याला ? | कोण कोण टाळ्या वाजवायला ?| कोण कोण करतील
विरोघ याला ? | नैसर्गिक विघ्ने कोण कोणती (१०.११)
तव 'चिन्तामणि' स्वरूपास स्मरुनी | करतील जे ही पूर्वतयारी | त्यान्च्या कार्यान्ना मिळे 'सिद्धी'
| तव कृपेनेच हे विघ्नहर्त्या (१०.१२)
तुझे सुप्रसिद्ध 'अष्ट' अवतार | त्यातील 'उमासुत' सर्वात थोर | अति लोकप्रिय हा अवतार |
'शिवसुता' तुज नमन माझे (१०.१३)
'गणेश' उमा-शिवसुत 'गजानन' | बहुसन्ख्यान्ना एवढेच माहित | उमेस तो तव वरदाने
सम्प्राप्त | हे ज्ञान बहुसन्ख्याकास नाही (१०.१४)
तू श्री, सद्बुद्धि, सन्मती दायक | भक्तास तू सर्व सद्गुण दायक | गुणान्चा, गणान्चा गणनान्चा
नायक | श्रीवरद मूर्तये नमन तुजला (१०.१५)
गणेशे 'अष्ट' मुख्य अवतार धरले | "शुक्ल चतुर्थी"न्नाच बहुतेक
जन्मले | श्रद्धेने "जन्मदिन" त्यान्चे साजरे | व्रतोत्सव रूपे 'गाणेश' करिती (१०.१५)
त्या 'अष्ट' अवतारान्ची नावे | वक्रतुण्ड पहिले, एकदन्त दुसरे | महोदर तिसरे, गजानन
चौथे | पाचवे लम्बोदर, सहावे विकट (१०.१६)
सातवा अवतार विघ्नराज | आठवा जाणावा धूम्रवर्ण | नाना दैत्यान्चा संहार करून | लीला तू
गणेशा स्तुत्य केल्या (१०.१७)
सिन्धू, सिन्दूर, नरान्तक, देवान्तक | इत्यादिक दैत्य दानव असुर | माजून माण्डिता त्यांनी
आकान्त | लीला अवतार धारण केले (१०.१८)
"शुक्ल चतुर्थी"स म्हणती 'विनायकी' | संपूर्ण दिन-रात्र 'उपवास' करुनी | गणेश पूजा, स्तोत्र
पठण करुनी | जपती गाणेश मन्त्रही नाना (१०.१९)
दुसऱ्या दिवशी 'पञ्चमी' तिथीला | लाडू नि मोदक नैवेद्याला | पारणे उत्सव करिती
साजरा | प्रसाद वाटुनी खाऊन मोदे (१०.२०)
ओल्या वा कोरड्या खोबऱ्याचे | करन्ज्या, मोदक तुपात तळले | अथवा वाफेवरती
शिजवले | नैवद्यासी गणपतीच्या (१०.२१)
अथवा डाळीन्च्या पुरणान्च्या | मोदक, कडबून्ना वाफाडोनिया | अथवा तुपात वा तेलात
तळुनिया | अर्पिती नैवेद्य गणपतीला (१०.२२)
गणपतीस लाडू पञ्च खाद्यान्चे | खारीक, खोबरे, खडीसाखरेमधे | खवा, खसखस खमंग
भाजून मिसळले | लाडू वळले नैवेद्यार्पणाला (१०.२३)
गणपतीस आवड 'दुर्वा' पत्रीन्ची | त्रिदले खुडोनी बांधती जुडी | एकवीस एकवीस संख्या
दुर्वान्ची | अर्पिती या जुड्या गणपतीला (१०.२४)
गणपतीस आवड 'शमी' पत्रान्ची | तशीच 'मन्दार' वृक्षान्च्या फुलान्ची | ती ही जोडोनिया
पूजेसी | अर्पण करिती गणपतीला (१०.२५)
गणपतीस आवड 'रक्त' पुष्पान्ची | गुलाब, गुलबाक्षी, कण्हेरी, कर्दळी | जास्वन्दी, सदाफुली
लाल मालती | मेळवोनि अर्पिती गणपतीला (१०.२६)
"धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष" | यांना म्हणती चार 'पुरुषार्थ' | हे चारही 'साध्य' करावयास |
'प्रार्थना' करिती गणेशा तुझी (१०.२७)
गणेशास देउळी महाभिषेक | करविती, पाहती मूर्ती अभिषिक्त | प्रदक्षिणा, साष्टान्ग नमने
करीत | 'विनायकी' व्रत करिती कोणी (१०.२८)
'गणेशगीता', 'योगगीता' | करुनि वा करवुनी पठण या
ग्रन्था | अथवा 'गणेश' वा 'मुद्गल' पुराणा | पठण करिती कोणी भक्त (१०.२९)
'गणेश पूर्व तापिनी उपनिषद्' | 'गणेश उत्तर तापिनी उपनिषद्' | 'हेरम्ब उपनिषद्', 'गणपति
उपनिषद्' | पठण करिती वा करविती कोणी (१०.३०)
वार्षिक भाद्रपद विनायकीला | सार्वजनिक अशा गणेशोत्सवाला | लोकमान्य टिळके प्रारम्भ
केला | आज तो जगभर लोकप्रियोत्सव (१०.३१)
मोठ मोठ्या पार्थिव गणेश मूर्ती | स्थापुनी पूजिती, समारम्भ करिती | नृत्य, गायन, नाटके
वाद्यादिकी | मनोरञ्जन 'मोदक' सेविती भक्त (१०.३२)
लोकसंग्रह, जनजागृतीचा | उपाय जगभर लोकप्रिय हा | आध्यात्मिक ज्ञान
संरक्षणाला | उपयोगी पडो श्री गणेश देवा (१०.३३)
गणेश, मुद्गल, स्कन्द पुराणी | लिन्ग, शिव, पद्म, मार्कण्डेयी ही | सात्विक सांकेतिक ज्ञानमय
गोष्टी | त्यान्चा आधार घेऊनिया (१०.३४)
नव्या एकान्किका, कथा, नृत्य नाटिका | रचोनि सादर त्यांना कराव्या | वार्षिक गणेशोत्सव
कार्यक्रमान्ना | ऐशी प्रेरणा दे भाविकासी (१०.३५)
कृष्ण वा वद्य चतुर्थी तिथीला | म्हणती 'संकष्टी' वा 'संकष्टहरा' | या दिनी उपवास करोनि
दिवसा | रात्री चन्द्रोदयी भोजन करिती (१०.३६)
'संकष्टहरा' व्रत करिता गणपती | भक्त गणान्ची संकटे
निवारी | जन्म, मृत्यू, वार्धक्य, व्याधी | ही चार मुख्य गणली त्यांत (१०.३७)
ऐशी दोनही चतुर्थी तिथि व्रते | करिता चारही 'पुरुषार्थ' साधे | निवारण होऊनि चारही
संकष्टे | जीवन सुखी सुलभ भक्तांस होई (१०.३८)
या गाणेशी श्रद्धेनुसार | करोत जगभर वार्षिक महोत्सव | सर्वास लाभॊ
आरोग्य, सौख्यादिक | शान्ती, समाधान श्रीगणेशा (१०.३९)
-----------------------------=====================================
११) 'फलश्रुती' व त्याचा सदुपयोग :
एतद् अथर्वशीर्षम् य: अधीते | स ब्रह्मभूयाय कल्पते |
स सर्व विघ्नै: न बाध्यते | स सर्वत: सुखमेधते |
"गणपति अथर्वशीर्ष" स्तोत्र सूक्ती | अन्ती कथिली असे 'फलश्रुती' | अध्ययन, पठण करिता कोणती | 'फलप्राप्ती' सांगण्यास्तव (१११)
अव्यापारेषु हा व्यापार | माण्डलेल्या दुकानी करिती जे व्यवहार | त्यान्च्या पदरी निराशा ही घोर | वाट्यास येईल अनुभवान्च्या (११.२)
तरीही हा 'मानसोपचार' | गणक, अथर्वण ऋषी थोर थोर | लिहिती का ? याचा 'अभिप्राय' काय | जाणोनि व्यापार हा करावा जी (११.३)
ज्याने बनवोनि ही सर्व सृष्टी | त्यातील अणू अणून्च्या हृदयी | जो निवसोनी अवशिष्टही राही | त्यास मी 'लाच' ही देणार कैसी ? (११.४)
पत्रे, पुष्पे, फुले, इत्यादिक | रूपान्नी जो मम नेत्रास 'प्रत्यक्ष' | त्यास ती अर्पोनिया बदल्यात | 'काम्य'पूर्ती मागणे धूर्तता की मूर्खता ? (११.५)
पित्याने दिले पैसे खर्चायला | 'बस, रेल्वे' तिकिट, खाण्या पिण्याला | त्यातूनच बाळ जणु घेऊन परतला | 'आइस्क्रीम' पित्याच्या 'खुषी'साठी (११.६)
'आइस्क्रीम' खाऊन पिता सन्तोषला | म्हणे "तुज काही हवेय का बाळा ?" | तत्समच सारा हा फलश्रुतीन्चा | खेळ जाणावा भाविकान्नी (११.७)
देवाने जी दिली 'दातृत्व'शक्ती | त्यामुळेच मज घडे 'दानधर्म' काही | तरी त्याच्या मोबदल्यात काही | हक्काने मागणे सर्वथा अयोग्य (११.८)
'कुबेर' ज्याचा हिशोबनीस | अवघे हे विश्वच ज्याचे 'उदर' | त्यास मी देऊन देणार तरि काय ? | हा विवेक मन्मनी सदा वसो देवा (११.९)
प्रत्येक मानव वा पशू पक्षी | ज्यास पौत्र वा कन्या समची | त्यास करावी 'प्रार्थना', 'विनवणी' | 'व्यापारी वृत्ती' साण्डोनि सर्वथा (११.१०)
असो, असे हे 'अथर्वशीर्ष' | अथर्व वेदांतील 'गणपति' नाम 'शिर' | जो जो कोणी अध्ययन करील | तो 'ब्रह्म' विषयी होईल ज्ञाता (११.११)
'मी, तू, तो, ते' 'हा, ही' सारे | 'ब्रह्म' तत्त्वाचेच 'अंश' हे सारे | या ज्ञान जाणिवेने अनेक 'विघ्ने' | 'बाधा'ही गणेश कृपेने टळती (११.१२)
जे हे 'गणेश' कवच धारण करिती | त्यास मिळेल शान्ति सुखकारी | जाणीव होउनी दैवी 'सुरक्षिततेची' | सुख समाधान चित्ती नांदेल (११.१३)
स पञ्च महापापात् प्रमुच्यते |
सायम् अधीयान: दिवस कृतम् पापम् नाशयति |
प्रात: अधीयान: रात्री कृतम् पापम् नाशयति |
सायम् प्रात: प्रयुञ्जान: अपापो भवति |
सर्वत्र अधीयान: अपविघ्न: भवति | धर्म अर्थ काम मोक्षम् च विन्दति |
पापे अनेक प्रकारची असती | कांही छोटी तर काही मोठ्ठी | न कळताच कांही घडून जाती | न करावी उद्देश पूर्वक स्वार्थे (११.१४)
असत्य, अनृत, बोचरे बोलणे | घालून पाडून अनुचित वदणे | खोटे दिमाख अहंकार मिरवणे | अनावश्य स्पर्धा, असूया, हिंसा (११.१५)
दुराचार, दुष्टता, अति घाबरटपणा | अपथ्य, कुपथ्य आहार, निन्दा | अत्याचारी, घातक , अभद्र वर्तना | टाळावे सदैव सज्जनांनी (११.१६)
अयुक्त अनारोग्य कारक सवयी | अयुक्त विचरण वेळी अवेळी | अयुक्त चेष्टा मस्करी सगळी | पातके समजुनी टाळावीत (११.१७)
काम, क्रोध, मद, मत्सर | दंभ, लोभ हे षड् रिपू मनांत | लपून घडविती पातके अवचित | जाणीव होताच धुवावे त्यांना (११.१८)
ब्रह्महत्या, सुरापान | खून, दरोडा, सुवर्ण स्तेय | गुरूपत्नीशी कामभोग | ही चार असती महा पातके (११.१९)
पाचवे महापातक संगतीचे | या चौघां पातक्यांना मदत करण्याचे | या पांच पापातुन सुटका होते | उचितशा प्रायश्चित्त आचरणांनी (११.२०)
न्यायालयी मिळे 'राजदंड' | नरकी यमदूत छळतील उदंड | या भये करिती दानधर्मादिक | मन्त्र जपादिक पुरश्चरणे (११.२१)
तीर्थ यात्रा, गंगादिक स्नाने | देवपूजा, तपाचरणे | पश्चात्ताप पूर्वक आचरण्याने | पापसंचय क्षय, ऐशी श्रद्धा (११.२२)
दैहिक पापाने दैहिक रोग | मानसिक पापाने मानसिक ताप | बौद्धिक पापाने बौद्धिक छळवाद | ऐशी दैवी वा नैसर्गिक प्रक्रिया (११.२३)
गणपति अथर्वशीर्ष अध्ययनाने | श्रवण, पठण, अध्यापनाने | 'प्रायश्चित्त'पूर्वक पुरश्चरणाने | महापातक संचयही क्षीण होई (११.२४)
दिवसभरांत जे जे घडेल पातक | सायम् पठनाने त्यान्चा विनाश | रात्री अपरात्री जे घडेल पातक | त्यान्चा नाश प्रात: पठणे (११.२५)
सायम् प्रात: दोऩ्ही वेळा | नित्य पठण प्रकारे ऐशिया | न घडेल 'संचय'च पातकान्चा | अपाप वा निष्पाप स्थिती राहेल (११.२६)
सतत सर्वत्र जे म्हणतच राहती | मानसिक बौद्धिक चिन्तनांत रमती | त्यान्ची कार्ये निर्विघ्न साधती | पुरुषार्थ चारी लाभती त्यासी (११.२७)
इदम् अथर्वशीर्षम् अशिष्याय न देयम् |
यो यदि मोहात् दास्यति | स पापीयान् भवति |
ऐसा या सूक्ताचा सदुपयॊग | सात्विक वृत्तीने, करतील धार्मिक | त्यांनाच करावा याचा उपदेश | इतरा अशिष्य्यास न करावा (११.२८)*
ऐशी सोपी पाप धुणी | होतेय तर मग पापे करोनी | स्वार्थ साधण्यास प्रवृत्त होउनी | दुरुपयोग दुर्जन करतील (११.२९)
ऐशिया दुर्जन पातक्यान्ची | देवासही 'मुर्ख' समजणाऱ्यान्ची | अघ पापान्ची न होईल कधी | क्षीणता या उपायाने (११.३०)
जे जे कोणी ऐशिया मोहे | उद्दिष्ट पूर्वकच करतील पापे | अथवा करवीतील फसव्या युक्तिवादाने | ते सर्व 'पापी' न होतील 'पुनीत' (११.३१)
रस्त्यावरती चालता चालता | चिखलांत पाय चुकून पडला | तरी पाय, बूट् अथवा
चपला | साबणाने स्वच्छ धूणेच यॊग्य (११.३२)
धार्मिक वाङ्मयात्मक ही सौम्य साबणे | चुकून घडलेली धूतात पातके | परन्तू खिशातच
साबण आहे | म्हणून निष्काळजी न व्हावे कोणी (११.३३)
अशा प्रकारचे धार्मिक उपाय | जणू का "क्षमा याचना' अर्ज | परमेश्वर भावना मन जाणून | न फसता स्वीकरी वा फेटाळी (११.३४)
न्यायालयातील न्यायाधिशाला | लष्करी जवान वा अधिकाऱ्यान्ना | आपापुले कर्तव्य बजावताना | घडती जी पातके ती जळतील (११.३५)
अशा प्रकारे जे जे कोणी | निष्कपट, निर्व्याज भावनांनी | 'क्षमा' याचना करण्यासाठी | पठतील त्यांनाच होईल कृपा (११.३६)
दैवतास प्रसन्न करण्यासाठी | किमान 'कोप' न होवो म्हणूनि | बहुसन्ख्य जन पुण्य कार्ये करिती | बहुतेक सर्व जी समाजोद्धारक (११.३७)
दानधर्म, पशु, वृक्ष पूजा | देउळे, तळी, विहिरी, आरोग्यालया | विद्यार्थ्यान्च्या शैक्षणिक गरजा | पुरविणे, ही मान्य 'पुण्य'कर्मे (११.३८)
'देवालय' हे एक सार्वजनिक | धार्मिक 'पुण्य'कर्मे करण्याचे स्थळ | आध्यात्मिक शिक्षणाचे विद्यालय | राखावे गणेश कृपा अर्जनास्तव (११.३९)
तेथे जे करतील पापाचरणे | भोळ्या धार्मिकास फसवून लुटणे | त्यान्ना गणेशाच्या अवकृपेने | घडेल शिक्षा उचित समयी (११.४०)
'श्रद्धा' सात्विक, राजसिक, तामसी | 'श्रद्धा'न्च्या या त्रिकोणी क्षेत्रफळी | प्रत्येक आपापल्या औपचारी | 'बिन्दू' 'बिन्दू'तुनी करिती प्रवास (११.४१)
या त्रिकोणातील ही तीर्थयात्रा | करविते 'आत्मोद्धार' दैवी उन्नतीला | अथवा दुर्दैवी 'आत्मपतनाला' | जन्मभर हा प्रवास चालतच राहतो (११.४२)
अथवा 'आध्यात्मिक' आकाशी | राजसिक 'श्रद्धा' क्ष अक्ष परी | तामसिक 'श्रद्धा' य अक्ष परी | झ वा ज्ञ अक्ष सात्विक श्रद्धेचा (११.४३)
कायिक, बौद्धिक, मानसिक, वैचारिक | कर्मे आपापल्या श्रद्धान्च्या परी | करविती प्रवास या आकाशी | उन्नती अवनती घडत राही (११.४४)
'ज्ञ' अक्षाच्या अति उच्च स्थळी | निवसतो 'गणेश' ऐसे समजुनी | त्या बिन्दूची साधावी जवळकी | आत्मोद्धारास्तव साधकान्नी (१२.४५)
वैष्णवान्नी मानावे हे विष्णु स्थल | शैवान्नी शिवाचे कैलास शिखर | सौर शाक्तान्नी सूर्य वा शक्तीस्थल | आपापुल्या श्रद्धा भक्तीनुरूप (११.४६)
सत्शिष्यास ही विद्या शिकविता | तो उपयोगील स्वात्मोन्नतीला | तसेच निस्वार्थ समाजोन्नतीला | सरासरी सामाजिक सौख्याची वाढे (११.४७)
दुर्जन अशिष्यास विद्या शिकविता | दुरुपयोग करतील स्वार्था करिता | पापाचरणासच 'निर्भयत्व' वाढता | सरासरी सामाजिक सौख्याची घटेल (११.४८)
जे गुरु शिष्याची प्रवृत्ती न जाणता | भये वा मोहे पढवतील दुर्जना | त्यान्ची वाढेल पापान्ची गणना | सरासरी सामाजिक सौख्याची घटेल (११.४९)
----------------------- =============== ------------------------
१२) फलश्रुती व प्रार्थना :
सहस्त्रावर्तनात् यम् यम् कामम् अधीते तम् तम् अनेन साधयेत् |
अनेन गणपतिम् अभिषिञ्चति | स वाग्मी भवति |
अथर्वशीर्षाची सहस्र आवर्तने | जे जे करतील योग्य भावनेने | त्यान्ची अडलेली खुन्टलेली कामे | सावरण्यास होईल दैवी मदत (१२.१)
'सहस्र' म्हणजे एक हजार | तसेच 'सह'-स्र वा स्रावासह | न थांबता वाहत्या स्रोतासम | अखण्ड पठण, मनन, चिन्तनादिक (१२.२)
अशा प्रकारे सातत्याने | ज्याने अध्ययनात स्वत:स जुम्पले | त्याचे मनोरथ पुरतील सगळे | गणेश कृपेने सर्व साध्य (१२.३)
पाप प्रक्षालन, पुण्य संपादन | यास्तवच करिती 'धर्माचरण' | 'काम्य' प्राप्तीस्तव 'कर्माचरण' | बहुसंख्य जनतेस हीच रूढी (१२.४)
याचे पठण करता जे करिती | गणेश मूर्तीस 'अभिषेकासी' | त्यास प्राप्त होईल "वाङ्मयी शक्ती" | ते लेखक, कवी, वक्ता होतील (१२.५)
चतुर्थ्याम् अनश्नन् जपति स विद्यावान् भवति |
इति अथर्वण वाक्यम् |
ब्रह्मादि आवरणम् विद्यात् | न बिभेति कदाचन इति |
नाना व्रते, उपवास, पूजा | यज्ञ, याग, तीर्थयात्रा | सांसारिक काम्य पूर्तीन्च्या आगळ्या | चेष्टा बहुजनान्च्या हृदयी ठसल्या (१२.६)
म्हणूनि 'फलश्रुती' स्तोत्रांत गुन्फिली | व्रतोपवासान्च्या कथांत कथिली | 'लाभ' प्रलोभने देखूनि तरि ही | बहुजनांत सत्प्रवृत्ती जागवावया (१२.७)
व्रतार्थ 'लंघन' वा उपवास | परमौषधी जी आयुर्वेदात | परन्तु नन्तर 'पारणे' कृतीत | षड्रस मिष्टान्न नैवेद्य योजिले (१२.८)
ऐशिया नैवेद्यान्चे भोजन | पाक्षिक, मासिक, वार्षिक बन्धन | पाळूनि करिता आरोग्य संवर्धन | आपोआप स्वेच्छया बहुजनांसी (१२.९)
शुक्ल चतुर्थीस 'विनायकी' व्रत | कृष्ण चतुर्थीस 'संकष्टी' व्रत | दोऩ्ही चतुर्थ्यास व्रतोपवास |अन्-अश्नन् मन्त्र, सूक्त जपत जावा (१२.१०)
"गणपति अथर्वशीर्ष" अशा प्रकारे | व्रतोपवास युक्त पठण करणारे | त्याचे चिन्तन युक्त अध्ययन करणारे | होतील विद्वान् विद्यावन्त (१२.११)
दोऩ्ही चतुर्थीस 'व्रत' पाळोनी | जो "अथर्वशीर्ष" जपेल त्यासी | 'चतुर्दश विद्यांची' होईल प्राप्ती | अनश्नन् व्रत-जप पुण्याईने (१२.१२)
गणित, भौतिक आणि रसायन | जैविक, वैद्यकीय आयुर्विज्ञान | मांत्रिक, तान्त्रिक, तन्त्र ज्ञान | सर्व विद्यांचा स्वामी गणेशची (१२.१३)
न्याय, नीति, तर्क सगती | यम, नियम, नैसर्गिक, मानवी | क्रीडा शारीरिक, मानसिक, बौद्धिकी | सर्व विद्यांचा स्वामी गणेशची (१२.१४)
भाषा, गद्य, पद्य, काव्य | शाब्दिक, सखोल, गुह्य ज्ञान | अर्थ, अस्त्र, शस्त्र, नैपुण्य | सर्व विद्यांचा स्वामी गणेशची (१२.१५)
संगीत, नृत्य, नाट्य आदिक | चौसष्ट कलान्चा ज्ञाता गणेश | भक्त इच्छा वय लिन्गानुरूप | विद्या वरदमूर्तीच देई (१२.१६)
ऐसे वाक्य असे 'अथर्वण' ऋषीचे | गणेश देव स्वभक्ताभिमाने | ऐसेच करील या श्रद्धेने | साधकान्नी लाभ मेळवावा (१२.१७)
ब्रह्म, परब्रह्म, परात्पर ब्रह्म | क्षर, अक्षर, उत्तम पुरुष | क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, परमात्म तत्त्व | जाणत्यास 'निर्भयत्व' प्राप्ती घडेल (१२.१८)
आत्म्याचे अमरत्व ज्याने जाणले | मी 'ब्रह्मांशच' हे ज्यास उमगले | त्यास मृत्यूचे भयही नुरले | तो सदा निर्भय वागेल जगती (१२.१९)
सत्कर्माचरणी जे सत्प्रवृत्त | त्यान्नाच लाभावे हे निर्भयत्व | इतरास दैवी कोपाचे भय | दुष्प्रवृत्तीस आळा घालावयासी (१२.२०)
यो दुर्वाङ्कुरै: यजति | स वैश्रवणोपमो भवति |
यो लाजै: यजति | स यशोवान् भवति | स मेधावान् भवति |
यो मोदक सहस्रेण यजति स वाञ्छित फलम् अवाप्नोति |
य: साज्य समिद्भि: यजति | स सर्वम् लभते | स सर्वम् लभते |
एकेका आवर्तनाच्या बरोबर | अर्पीत राहती जे दुर्वान्कुर | त्यास 'वैश्रवण' कुबेरासमान | सन्मान, धनैश्वर्य प्राप्ती घडे (१२.२१)
लाह्या फुटोनी होतात मोठ्या | चविष्ट, पचण्यास अगदी हलक्या | तैसेच आपुल्या 'कोष' आवरणादिका | फोडोनिया साधक 'ज्ञाता' होई (१२.२२)
आवर्तना गणिक लाह्या अर्पुनी | उपासना करतील त्यान्च्या मतीनी | त्यांस मेधा, यश प्राप्ती घडोनी | गणेश कृपा प्राप्ती घडे (१२.२३)
जे आवर्तना गणिक 'मोदक'| गणेशास अर्पण करतील 'सहस्र' | त्यान्च्या कामना मनोवान्छित | पूर्ण होतील गणेश कृपेने (१२.२४)
'सहस्र' मोदकान्चा नैवेद्य | गाणेश भक्तांस प्रीतिने वाटुनं | खावा सह कुटुम्ब परिवारा समेत | अन्नदान पुण्य प्राप्ती घडे (१२.२५)
'आज्य' तूप समिधान्च्या आहुती | "अथर्वशीर्ष" ऋचांन्च्या संगती | 'गणेश' याग करिती करविती | सर्व 'पुरुषार्थ' प्राप्ती त्यास (१२.२६)
अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग् ग्राहयित्वा सूर्य वर्चस्वी भवति |
सूर्यग्रहे महानद्याम् प्रतिमा सन्निधौ वा जप्त्वा सिद्धमन्त्रो भवति |
महा विघ्नात् प्रमुच्यते | महा पापात् प्रमुच्यते | महा दोषात् प्रमुच्यते |
स सर्वविद् भवति | स सर्वविद् भवति |
य एवम् वेद | इति उपनिषत् |
स्वकृत कर्मान्नी आत्मोद्धार उन्नती | स्वगृही वा कुठल्याही एकान्त स्थळी | यास मन्त्र, सूक्त, स्तोत्रादिक जपतपी | उपाय योजिती भाविक भक्त (१२.२७)
सार्वजनिक स्थळी, सार्वजनिक रीतिने | करिता करविता ही 'पुण्य'कर्मे | सार्वजनिक समाजासह उद्धरणे | अधिक 'श्रेष्ठ' मानले शास्त्री (१२.२८)
आठ मेधावी सत्शिष्यांना | 'ब्रह्म' जिज्ञासू ब्राह्मण सज्जना | 'सम्यक्' सुयोग्य प्रकारे त्यांना | 'गाणेश' विद्या ही शिकवावी (१२.२९)
ऐसे विद्यादान घडेल ज्यासी | तो सूर्यासम होईल तेजस्वी | 'वर्चस्व' गाजवुनि वाढवील कीर्ती | गणेश भक्तीची भूमण्डळांत (१२.३०)
सूर्य ग्रहणादिकान्च्या काली | वा महा नद्यान्च्या तीरांवरती | संगम स्थळी, तीर्थ क्षेत्री | गणेश प्रतिमा स्थापोनिया (१२.३१)
अशा प्रतिमान्च्या वा मूर्तीन्च्या | सन्निध करतील 'जप' यज्ञाला | त्यान्च्या "अथर्वशीर्ष" मन्त्रावर्तना | 'सिद्धी' देईल श्रीगणेश (१२.३२)
जेथे गणेशाची तीर्थ स्थळे | तेथे करता पुरश्चरणे | अधिक पुण्यप्राप्ती घडे | ऐशी श्रद्धा भाविकान्ची (१२.३३)
गणेशाची भव्य मन्दिरे | पौराणिक तथा ऐतिहासिक स्थले | आजही लोकप्रिय तीर्थयात्रा स्थळे | यान्ची यादी फारच मोट्ठी ( १२.३४)
त्यातील पुणे शहरा नजीकची | पेशवे कालीनत: सुप्रसिद्ध ऐशी | आठ मन्दिरे अष्टविनायकान्ची | झालीत जगभर मान्य आज (१२.३५)
मोरगावी 'मयूरेश्वर' | थेऊर येथे 'चिन्तामणि' मन्दिर | सिद्धटेकला 'सिद्धीविनायक' | 'महागणपति' रान्जणगांवी (१२.३६)
ओझर गावी 'विघ्नेश्वर' | लेण्याद्रीला 'गिरिजात्मज' | महाडला 'वरद विनायक' | 'बल्लाळेश्वर' पाली नगरी (१२.३७)
ऐशी अष्ट विनायक यात्रा | पायी चालता बहु पुण्यदा | वय, आरोग्य साम्भाळुनीया | योग्य वाहनाने करावी (१२.३८)
विनायकी वा सन्कष्टी समयी | अधिक 'पुण्य' प्राप्ती होई | अंगारकीला मगळवारी | सर्वाधिक पुण्य, अशी श्रद्धा (१२.३९)
'गणना' वा गण नेतृत्वासाठी | 'बुद्धी'च ताकत वा मुख्य 'शक्ती' | तिचेही प्रसन्नत्व मिळवण्यासाठी | स्थापिती तिज गणेश मुर्ती शेजारी (१२.४०)
धी, ऋद्धी, बुद्धी, अबुद्धी | सबुद्धी, सुबुद्धी, विवेकबुद्धी | सद्बुद्धी, दुर्बुद्धी, भ्रान्ती, इत्यादि | नाना स्वरूपे या बुद्धीचीच (१२.४१)
कार्यास सिद्धी मिळवून द्यावया | उपयोगी ऐशा बौद्धिक युक्त्या | त्यांतील प्रमुख प्रबलवान् आठ ज्या | त्यान्ची यादी अष्ट सिद्धीत (१२.४२)
अणिमा पूर्वेस, महिमा आग्न्येयी | गरिमा दक्षिणेस, लघिमा नैऋत्यी | प्राप्ति: पश्चिमेस, प्राकाम्य वायव्यी | ईशिता उत्तरेस, वशिता ईशान्यी पूजितात (१२.४३)
सिद्धीचे नांव व दिशा दर्शनान्चे | ज्ञान मिळवून योग्य प्रकारे | योग्य युक्ती योजिती त्यान्चे | कार्य साधेल गणेश कृपेने (१२.४४)
महा विघ्नान्च्या निवारणास्तव | महा दोषान्च्या निवारणास्तव | महा पापान्च्या निवारणास्तव | सदुपयोग या विद्येचा करावा (१२.४५)
जे जे जाणतील ही सद्विद्या | तेच जाणते ज्ञाते सर्वथा | तयांवर होईल गणपतीची कृपा | ऐसे सान्गती वेदोपनिषदे (१२.४६)
असो ऐसे हे 'अथ' पासोनी | 'इति' पर्यन्त अंती येउनी | "गणपति अथर्वशीर्ष" समजावोनी | वक्ता सांगोनि स्तब्ध झाला (१२.४७)
श्रोते गणांनी 'ध्यान'पूर्वक | 'श्रवण' केले 'भक्ती'सहित | म्हणोनि गणेश कृपेस पात्र | वक्ता श्रोता सर्वही झाले (१२.४८)
वार्षिक 'गणेश चतुर्थी' उत्सव | "गणपति अथर्वशीर्ष" पारायणासह | अर्थ जाणोनि झाले कृतार्थ | चिन्तने 'चिन्तामणी' प्रसन्न झाला (१२.४९)
मानवी आयुष्य शभर वर्षे | झोपेत त्यातील गेले अर्धे | 'बाल'पण दशांश खेळण्यात संपले | चतुर्थांन्शी वार्धक्यी अंध, बधिरत्व (१२.५०)
युवावस्थेत मी मदे मदांध | "माझ्या सारखा मीच फक्त" | ऐशा दिमाखे मिरवण्यांतच | 'काल' मी व्यर्थ घालवीला (१२.५१)
पोक्तवयी मानवी 'अल्पबुद्धी' | त्यांत मज कुतर्क चिन्तनांची व्याधी | या सर्वातुन गाळून घेउनही | पटले तेवढेच वदलो येथे (१२.५२)
आदि शंकराचार्य, ज्ञानेश्वर | रामदासान्चे मी धरिले बोट | पाठीशी उभा श्रीगणेश | प्रेरणा दायक सर्वसाक्षी (१२.५३)
एकोणीसशे बेचाळीस | ऐसा शालिवाहनाचा शक | भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी तिथीस | लेखन पूर्तता गणेश कृपेने (१२.५४)
संवत्सराचे नाम 'शार्वरी' | वर्षा ऋतु, दक्षिणायनी | 'गणेश चतुर्थी' महोत्सव मुहुर्ती | गणेश कृपेने पूर्तता झाली (१२.५५)
ख्रिस्त शके द्विसहस्त्र वीस | दिनांक बावीस वार शनिवार | 'अभिगिरी' क्षेत्री देश भारत | या स्थळी गणेश कृपेने सिद्धी (१२.५६)
नमो वक्रतुण्डा एकदंता | कृष्णपिन्गाक्षा गजवक्त्रा | लम्बोदर, विकट विघ्नराजेन्द्रा | धूम्रवर्णा भालचन्द्रा (१२.५७)
नमो विनायका गणपति | गजानना मम प्रार्थना पुरवी | "अखिल ब्रह्माण्डी सदा सुख शान्ती | समृद्धी आरोग्य समाधान निवसो" (१२.५८)
----------------------- =============== ----------------------------------------------- =============== ------------------------